🌺साहित्य सिंधु🌺
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पद्य रचना:
शीर्षक-'उस पार तू चल'
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इस पार तो केवल डर ही डर
फैला है देख तू जिधर-उधर,
कुंवा है इधर, खाई है उधर
जाएगा बचके बोल किधर।
इस डर पर विजय जो पाना है
तो डूब सिंधु की धार में चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
चल लपक-झपक मनमानी कर
कुछ कपट कुपित नादानी कर,
साधु मन को अभिमानी कर
सूरज की आग को पानी कर।
कर शंखनाद दिग्गज डोले,
सिंहों-सा कर हुंकार तू चल।
राही रे उठ उस पार तू चल।
बारिश हो मूसलाधार यदि
नदियां उफने लगातार यदि,
हो बिजली की बौछार यदि
करे डगमग जो पतवार यदि।
कर बलि स्वयं की आगे बढ़,
मुड़ मत जीवन को वार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
सागर का नीर सुखा लो तुम
हाथों पर अचल उठा लो तुम
ब्रह्मांड को माप भी डालो तुम
अंतर में जुनूं जब पा लो तुम
मैं की शक्ति क्यों भूल रहा,
अपने बल को पहचान तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
कुछ भी कर बच ना सकेगा तू
मृत्यू का ग्रास बनेगा तू,
बंद पिंजरे में क्या रहेगा तू
क्या संकट से ना लड़ेगा तू।
तय मरना कल या आज है तो
कल की मत सोच मर आज तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
अंतिम तक जोर लगाओ तूम
मन का विश्वास जगाओ तुम
जरा जोश जुनून से आओ तुम
फिर एक छलांग लगाओ तुम
गिर-गिर कर उठ ,उठ-उठ कर गिर
हर बार तू उठ हर बार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
हाथों में जो है लकीर बना
देखा जिसने वो फकीर बना
जो वीर धीर गंभीर बना
जग उसका ही जागीर बना
किस्मत के भरोसे बैठ ना अब
सुन मंजिल की पुकार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
राही रे उठ उस पार तू चल।
'शर्मा धर्मेंद्र'
3 comments:
Nice poem
Good
Thanks
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