Saturday, November 28, 2020
Thursday, November 19, 2020
Friday, September 04, 2020
Thursday, May 28, 2020
'स्वीकार'
🌺साहित्य सिंधु 🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' स्वीकार '
कुछ सोचो,तुम चिंतन एक बार करो,
क्या मिलेगा यदि चिंता सौ बार करो
जो वश में नहीं,उस पर बहस बेकार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
कुछ है कुछ नहीं भी,
जितना मिला उतना ही सही।
व्यर्थ कुछ और मिलने का इंतजार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
किसी को धन मिला,
किसी को मन मिला।
जो मिला उसी को बरकरार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
गुमान उन्हें अमीरी का,
आन तुम्हें फकीरी का।
जो है उसी पर श्रृंगार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
लकीर मत देख अपने हाथ का,
जरूर मिलेगा तुम्हारे भाग्य का।
वक्त का थोड़ा इंतजार करना होगा।
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
खुश रह ना तनिक अफसोस कर,
संभाल खुद को जरा संतोष कर।
व्यर्थ अभिलाषा हजार करना होगा
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
लूटे पांडवों का सब लौट गया,
देखा अभिमान कौरवों का टूट गया।
हक की हकीकत से ही सरोकार रखना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
सर्वदा सवार रह कर्म पथ पर,
चल उठ आज एक शपथ कर।
पाना है तो प्रयत्न हर बार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।
'शर्मा धर्मेंद्र'
Saturday, May 23, 2020
'डर'
🌺साहित्य सिंधु 🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' डर '
कांटो से है डर कहां?
डर तो है गुलाब से,
देखना!
हिसाब से।
डर कहां दिल टूटने का?
डर तो है ख्वाब से,
देखना!
हिसाब से।
झूठ से है डर कहां?
डर तो है इंसाफ से,
देखना!
हिसाब से।
डर कहां बदनामी से?
डर है उसके दाग से,
देखना!
हिसाब से।
खंजर चुभे ये डर कहां?
डर चुभने वाली बात से,
देखना!
हिसाब से।
डर कहां हानि से खुद के?
डर है उनके लाभ से,
देखना!
हिसाब से।
खोने से है डर कहां?
डर है उसकी याद से,
देखना!
हिसाब से।
डर कहां है गैरों से?
डर है अपने आप से,
देखना!
हिसाब से।
'शर्मा धर्मेंद्र'।
Thursday, May 21, 2020
'मैं'
🌺साहित्य सिंधु 🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' मैं '
पीपल,बरगद की छांव सा- मैं,
गहरी दरिया में नाव-सा मैं।
गहरी दरिया में नाव-सा मैं।
कभी पतझड़,बसंत कभी बरसात रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
बात का पक्का हूं,
इंसान सच्चा हूं।
खड़ा हर वक्त सच के साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
जिस्म महकता मेरा इमानदारी से,
रिश्ता सबसे मेरा,दुराचारी से, सदाचारी से।
गले लगाकर शत्रुओं के भी साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
जीवन जैसा भी है मेरा,
संतोष ही महाधन है मेरा।
घोर दरिद्रता,अभाव में भी न उदास रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
बड़ी हैसियत से क्या लेना-देना,
खालूं, खिला दूं प्रभु बस इतना दे देना।
मुस्कुराता अपनी झोपड़ी के पास रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
श्रेष्ठ बन जाने की तमन्ना नहीं,
बिसात भूलकर जीवन हमें जीना नहीं।
आसमां बनकर भी ज़मीं के साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
हाथों मेरे ना कोई बुराई हो,
कुछ हो अगर तो किसी की भलाई हो।
यथाशक्ति दान धर्म पूण्य की चाह रखूंगा
यथाशक्ति दान धर्म पूण्य की चाह रखूंगा
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।
'शर्मा धर्मेंद्र'
Sunday, May 17, 2020
'कोरोना'
🌺साहित्य सिंधु 🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- 'कोरोना'
इस कविता का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं बल्कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के प्रति लोगों को जागरुक करना,सचेत करना,एवं उनका मनोरंजन करना है।
(मगही आंचलिक हास्य कविता)
नाया मेहमान हे,
बाड़ा बदनाम हे।
डरे एकरा सब कोई घर में लुकाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
दुनिया लाचार हे,
मचल हाहाकार हे।
सुपर पावर देश भी ठेहुना प आएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
बढई हाली-हाली हे,
रोग बलशाली हे।
धरई थे इ कस के जे तनिको छुआएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
लाक-डान बढ़ई थे,
कछुआ नियन चलई थे।
सालो भ टूटत ना अइसन बुझाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
हटे से घट जाएत,
सटे से बढ़ जाएत।
सटही से सउसे जहान छितराएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
गांव ना शहर गेल,
जे जाहां हल ठहर गेल।
निकलल जे घर से उ कुकुर नियन खदेराएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
बर-बजार बंद हे,
मिलइत शकरकंद हे।
निमके आउ भात प संतोख बन्हाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
बड़े-बड़े बाबू साहेब,
अपना के लाट साहेब।
लाक-डाउन तोड़े वाला सोंटा से सोंटाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल सहे।
चानी कोई कटई थे,
चानी कोई बंटई थे।
धरमी-अधरमी अबे चिन्हाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
सडुआना ना ससुरारी के,
नेवता ना हकारी के।
तिलक,बरात,चउठारी सब भुलाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
परकीरती के खेल हे,
सिस्टम सब फेल हे
विज्ञान,वेद,गीता,कुरान सब रखाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल से।
सामाजिक दूरी बढ़ई थे ,
मास्क मुंह प चढ़ई थे।
साबुन,सेनेटाइजर खूब हाथ प मलाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
धीर तनी धरल जाव,
घरवे में रहल जाव।
संकट इ संयम से रहे वाला आयल हे।
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।
धन्यवाद हम करई थी,
गोड़ उनका लगई थी।
कोरोना के जोधा जे सेवा में अझुराएल हे
Thursday, May 14, 2020
'पढ़ेगा कौन..?'
🌺साहित्य सिंधु 🌺
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साहित्य सिंधु की कलम से.....
पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक-पढे़गा कौन..?
स्याही खत्म हुई मेरे कलम की,
अब भरेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
लोग सब हैं समय के अभाव में,
बेचैन,व्यस्त सब जी रहे तनाव में।
विश्राम शब्दों की छांव में करेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
आओ एक नई बात बताऊंगा,
मैं तुम्हें जिंदगी के पाठ पढ़ाऊंगा।
मेरी पुस्तक का पाठक बनेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
तुम सोचते हो मैं ही दुखी हूं,
पढ़ कर देख मैं भी दुखी हूं।
विपत्तियों के साथ भी खड़ा रहेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
मैं लिखता रहूं और कोई ना पढे़,
फिर लेखन की गाड़ी आगे कैसे बढ़े?
मेरे विचारों की सवारी करेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
पन्ने उलट-पुलट के रह जाते हो,
अब कौन पढ़ें,ये सोच के रह जाते हो।
अनंत ज्ञान की हिफाजत करेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं
मगर पढ़ेगा कौन..?
विष को अमृत कर दूं,
मृत को जीवित कर दूं।
मेरे भावों का रसपान करेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
इंसान,इंसान बने कैसे?
मानव महान बने कैसे?
मेरी अभिव्यक्ति को व्यक्ति समझेगा कोन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
उत्तम चरित्र, व्यक्तित्व हो जाए,
जीवन सबका साहित्य हो जाए।
पवित्र पथ पर पांव आखिर धरेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
मगर पढ़ेगा कौन..?
'शर्मा धर्मेंद्र'
Wednesday, May 13, 2020
'देश'
🌺साहित्य सिंधु 🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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साहित्य सिंधु की कलम से.....
पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक-'देश!'
घाव इसने दिया या उसने,
आखिर दिल दुखाया तेरा किसने?
नाराज क्यों हो,बताओ तो हमें?
देश !
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें?
चीख-पुकार आह निकल रही है।
हिंसा की चिंगारी कहां सुलग रही है?
ज्वाला भड़का कौन जला रहा है तुम्हें?
देश !
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?
हथियार से वार किसने किया?
खुद को तुझ पर वार किसने दिया?
छीन गया,क्या मिल गया तुम्हें?
देश !
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?
सब कुछ किसके पक्ष में है?
बता कौन तेरे विपक्ष में है?
विवश कर वश में किसने किया तुम्हें?
देश !
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?
अस्मिता को चिता में कौन जला रहा है?
अपराधों का बवंडर कौन उठा रहा है?
जघन्य मंशा लिए कौन घूर रहा है तुम्हें?
देश !
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?
प्रीत की रीत चलाने वाले श्याम कहां गए?
मर्यादा पुरुषोत्तम वो श्रीराम कहां गए?
कंस-रावण बन,कौन सता रहा है तुम्हें?
देश !
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?
'शर्मा धर्मेंद्र'
Sunday, May 10, 2020
कोरोना गीत
🌺साहित्य सिंधु 🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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साहित्य सिंधु की कलम से.....
प्राणघातक वैश्विक महामारी 'कोरोना' के प्रकोप से आज दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही है। एक गीत के माध्यम से हम संदेश देना चाहते हैं कि सोशल डिस्टेंस बनाएं, सतर्क रहें, सुरक्षित रहें क्योंकि
"जान है,तो जहान है "
धन्यवाद!
(भोजपुरी गीत)
जाने कवन , दुश्मन मुदईया 2
लईलस अईसन ,विपत्ति बलईया 2
दुनिया के रोवे कोना - कोना हो ....2 जा-जा तू जा ए कोरोना हो.....2
1
कवन अधरमी , अधरम कऽ दिहऽलस,
केकरऽ कुपुतऽवा , कुकऽरम कऽ दिहऽलस,
विधि के विधान , भईल पानी - पानी,
अधऽमी उ कवन , अनरऽथ कऽ दिहऽलस।
करऽम बा केकऽर , के फल भोगे,
सांस जिनीगिया के, टूटे रोजे -रोजे।
बंद नईखे होवत रोना-धोना हो..2
जा-जा तू जा ए कोरोनावायरस हो..2
2
छुआ -छूत के बा , ई महामारी,
दिन पर दिन इ , गोड़ पसारी,
स्वच्छ रहीं निज ,गृह से ना निकलीं,
जिनगी रही,सह लीं ई लाचारी।
सुनऽ ए सजन एगो ,कहावत पुरान बा,
बच के रहऽ जान , बा तऽ जहान बा,
होनी -हानी दईबो जाने ना हो...2
जा -जा तू जा ए कोरोनावायरस हो..2
जा -जा तू जा जा!
जा -जा तू जा जा!
जा-जा तू जा ए कोरोना.....
'शर्मा धर्मेंद्र '
Sunday, April 12, 2020
हिंदी शायरी आकृति
Tuesday, January 07, 2020
'आजकल के लईन'
🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
पद्य रचना
विधा- कविता
शीर्षक- 'आज-कल के लइकन
(मगही आंचलिक हास्य कविता)
संदेश- समकालीन युवा पीढ़ी की चंचलता एवं स्वच्छंदता से पाठकों को अवगत कराना,
किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाते हुए पाठकों का पूर्ण मनोरंजन करना।
लेखक स्वयं ऐसी भावनाओं के वशीभूत पूर्व काल में रह चुका है।
शीर्षक- 'आज-कल के लइकन
(मगही आंचलिक हास्य कविता)
संदेश- समकालीन युवा पीढ़ी की चंचलता एवं स्वच्छंदता से पाठकों को अवगत कराना,
किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाते हुए पाठकों का पूर्ण मनोरंजन करना।
लेखक स्वयं ऐसी भावनाओं के वशीभूत पूर्व काल में रह चुका है।
🌺
कान बहिर पीठ, गहींड़ करई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
रात के दिन,
आम के नीम,
कहब औंरा, तो बहेरा बुझई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
दुनिया लाचार हे,
कहल बेकार हे,
समझवला प उल्टे समझावे लगई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ
लिखावल-पढावल,
पइसा लगावल,
बाबूजी के धन हईन, उड़वई चलई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
ना चले के लूर,
ना बोले के सहूर।
का जनि कईसन पढाई करई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
कहब कि सुन-सुन,
करे लगतन भुन-भुन।
घुनूर-घुनूर मने में गुरगुराई रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
दिन-रात इयार के,
रहतन दरबार में,
घरे से खाके टिकीया-उडान भगई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
सेंट-मेंट मार के,
जूलफी संवार के।
फटफटिया प दिन भ लदाएल रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
ना चले के लूर,
ना बोले के सहूर।
का जनि कईसन पढाई करई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
कहब कि सुन-सुन,
करे लगतन भुन-भुन।
घुनूर-घुनूर मने में गुरगुराई रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
दिन-रात इयार के,
रहतन दरबार में,
घरे से खाके टिकीया-उडान भगई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
सेंट-मेंट मार के,
जूलफी संवार के।
फटफटिया प दिन भ लदाएल रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
चेत ना फिकीर,
उड़वइ हथ तितीर
बाबू जी खेत में मरई-धंसई हथ,
चेत ना फिकीर,
उड़वइ हथ तितीर
बाबू जी खेत में मरई-धंसई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
कहई थी एने,
कहई थी एने,
तो जाई हथ ओने,
रस्ता बिलाई नियन कटई चलई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
शर्मा धर्मेंद्र
शर्मा धर्मेंद्र
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