🌺🌺साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
पद्य रचना
विधा - कविता
शीर्षक - 'मुझे जिंदा कर दो'
हे! प्रियतम।
है कौन-सा बंधन,
आते नहीं तुम।
अब तो आओ
क्षीण हो रही
प्राणवायु मेरी।
मुझ में अपना
स्वांस भर दो,
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
व्याकुल व्याकुल-सा है मन,
प्रेम-विरह प्रताड़ित तन।
तुम अटल आस्था मेरा,
मुझे जीर्ण-शीर्ण, मरणासन्न
काल ने घेरा।
संजीवनी बन निज कर के
मुझको मृदु छुअन से
फिर स्वस्थ कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
अतृप्त न केवल हम,
अतृप्त भी हो तुम।
विधान यह विधि का,
या है इंसान का।
तुम मेरी,मैं तृष्णा तेरी।
बन बादल प्यासी धरती को
शीतल-शीतल कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
अनावृष्टि हो, अकाल हो,
जल की एक बूंद तो
अत्यल्प है,अतिलघु,शून्य हैं।
किंतु तृष्णा की तृप्ति
वही एक पहली बूंद है।
आज उस बूंद को
अमृत कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
शर्मा धर्मेंद्र
हे! प्रियतम।
है कौन-सा बंधन,
आते नहीं तुम।
अब तो आओ
क्षीण हो रही
प्राणवायु मेरी।
मुझ में अपना
स्वांस भर दो,
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
व्याकुल व्याकुल-सा है मन,
प्रेम-विरह प्रताड़ित तन।
तुम अटल आस्था मेरा,
मुझे जीर्ण-शीर्ण, मरणासन्न
काल ने घेरा।
संजीवनी बन निज कर के
मुझको मृदु छुअन से
फिर स्वस्थ कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
अतृप्त न केवल हम,
अतृप्त भी हो तुम।
विधान यह विधि का,
या है इंसान का।
तुम मेरी,मैं तृष्णा तेरी।
बन बादल प्यासी धरती को
शीतल-शीतल कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
अनावृष्टि हो, अकाल हो,
जल की एक बूंद तो
अत्यल्प है,अतिलघु,शून्य हैं।
किंतु तृष्णा की तृप्ति
वही एक पहली बूंद है।
आज उस बूंद को
अमृत कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।
शर्मा धर्मेंद्र