🌺साहित्य सिंधु 🌺
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साहित्य सिंधु की कलम से......
विधा -वास्तवीक घटना पर आधारित कहानी
लेखक - धर्मेंद्र कुमार शर्मा
स्वयं पर एक आरोप लगा रहा हूं कि साहित्यिक विचार रखने के बावजूद भी इन दिनों मैं एक लापरवाह लेखक हूं। लापरवाह इस मामले में हूं कि अत्यंत चिंतनशील होने के बावजूद भी मेरा लेखन कार्य ठप पड़ा हुआ है। वैसे अब तक मैं लगभग 50 कविताएं और तीन चार सौ शेरो-शायरी लिख चुका हूं। कई अन्य रचनाएं भी मेरी होंगी। फिलहाल समय का अभाव, आलस्य या यूं कह लीजिए कि जिंदगी के अगड़म-बगड़म, बाइस-बहत्तर में उलझ चुका हूं और इस उलझन के कारण ही शायद बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं । खैर अब आप सब पाठक गण मेरे बारे में जो कुछ भी सोचें आपको पूरी आजादी है। वैसे भी आप लोगों की सोच पर मेरा क्या अख्तियार है।
जीवन का सफर अंतिम सांस तक अनवरत चलते रहता है और इंसान इस जीवन के सफर में भी आनेको काल्पनिक सफर करते रहता है। इसी तरह एक दिन किसी परीक्षा हेतु मैं भी सफर पर निकला। परीक्षा पटना में होनी थी। पास ही एनटीपीसी से मैने बस पकड़ा और सफर के लिए रवाना हो गए । सुबह के 5-6 बज रहे थे। गर्मी का मौसम था,एयर कंडीशनर बस में बैठते ही मैं गर्मी के मौसम से बेखबर हो गया और खिड़कियों से चलचित्र की भांति बदलते हुए दृश्य को निहारते हुए एक अलौकिक सुख की अनुभूति करने लगा । लगातार दो-तीन महीने गर्मी के मौसम को झेलने के बाद एसी बस में बैठने पर मैंने एक लंबी राहत की सांस ली। बस अपने रफ्तार में थी और मैं विचारों के मंथन में। यहां एक बात बताते चलूं कि खासतौर से मेरे लिए आत्म चिंतन का सबसे बढ़िया जगह है नाई की दुकान पर हजामत बनवाने के लिए इंतजार करना या ट्रेन, बस से कोई यात्रा करना।खिड़की के पास बैठे मैं चिंतनशील होता चला जा रहा था । जिस परीक्षा को मैं पटना देने जा रहा था उसके लिए हमारे दिमाग में किसी भी तरह का कोई तनाव नहीं था। अब इतना तनाव लेकर आदमी चले तो सफर का आनंद ही क्या रह जएगा। मैं वर्तमान जीवन के सांसारिक बोझ को दिमाग से उतर चुका था ।मैं तो अब उस इत्तेफाक को तलाशने लगा जिस पर कुछ लिखा जाए। खैर गाड़ी चलती -ठहरती अपने सवारियों को लेते हुए आगे बढ़ रही थी ।
जब गाड़ी औरंगाबाद रमेश चौक पहुंचीं तो काफी देर रुकी। कंडक्टर से पता किया तो गाड़ी खुलने में देर थी। सोचा,बस से नीचे उतर कर थोड़ा हाथ पांव सीधे कर लिए जाएं । जैसे ही बस से उतरकर एक तरफ खड़ा हुआ , एक दुबले पतले और छोटे कद का लगभग 10-12 साल का लड़का सर पर अखबार का एक बंडल लिए अपने कदमों को नापते हुए एक हाथ अपने कमर पर रखे हुए कुछ व्यथित मन से मेरे पास आकर खड़ा हो गया। अजीब बात है, उधर कुछ ही देर पहले जिस इत्तेफाक के तलाश में था शायद अब वह मेरे सामने था। मैं सोचने लगा कि क्या यही लड़का है जिस पर मेरी कलम चलेगी ? देखना यह था कि यह वास्तविक घटना किस तरह आगे बढ़ती है। वास्तविक घटना को आगे बढ़ने से पहले कुछ बातें आपको बताते चलूं तो ठीक ही होगा।
उसे लड़के का हुलिया कुछ इस प्रकार था, उस लड़के ने अपने साइज से कुछ बड़ा ही कमीज पहन रखा था। मैला -कुचैला एक फूल पैंट और पैर में टूटी हुई चप्पल। किसी शारीरिक पीड़ा से बार-बार उसके चेहरे पर तिलमिलाती असह्य कष्ट की रेखा उभर जा रही थी। उसे देखकर कोई भी अंदाजा लगा लगा सकता है कि वह एक विवश , लाचार और मजबूर लड़का है। लेकिन शहर में उसके चेहरे की विवशता की भाषा कौन पढ़ सकता था? भावों एवं संवेदनाओं की गहरी खाई मैं गोता लगाने के लिए तो एक लेखक या कवि का ही ह्रदय चाहिए जो सब किसी के पास नहीं होता। लेकिन मैं यह सब महसूस कर सकता हूं और करने लायक हो चुका हूं ।
आमतौर पर आपने देखा होगा कि शहरों , बाजारों या अन्य किसी जगह पर फेरी वाले और रेहड़ी वाले एक विशेष प्रकार की आवाजों के साथ सामान बेचा करते हैं। उनकी आवाजों में एक तरह की सम्मोहन शक्ति, ऊर्जा और ताजगी होती है। बड़े ही जोश और मनोरंजक तरीके से वह अपने ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं लेकिन मेरे सामने जो लड़का अख़बार लिए खड़ा था उसमें ऐसी कोई बात नहीं थी । खैर यह वास्तविक घटना आगे बढ़ी।वह ज्यों ही मेरे पास आकर खड़ा होता है, उसका पहला लफ्ज़ था-" एक पेपर खरीद लीजिए ना भईया ! "। उस लड़के के इस एक ही लफ्ज़ ने उसके भूत, वर्तमान और भविष्य की परिस्थितियों को मेरे सामने लाकर खड़ा कर दिया । मैं पेपर पढ़ने का न तो शौकीन हूं और न ही समाचार पत्र मेरे दैनिक जीवन का अंग ही है।मैंने झट से खुश्क-रुखा जवाब दिया- क्यों खरीद लूं? अब दो अनजान लोगों के बीच में बातचीत का सिलसिला जारी हो चुका था। अब औरंगाबाद शहर में हमारे और उसे लड़के के सिवा शायद कोई नहीं था मैंने ये सिलसिला आगे बढ़ाते हुए पूछा- नाम क्या है तुम्हारा? उसने जवाब दिया-मनीष। मैंने फिर पूछा- कोई अच्छा-सा काम क्यों नहीं कर लेते? जवाब देते हुए व्यथित मन से उसने कहा-नहीं भईया मैं कोई काम नहीं कर सकता केवल चल सकता हूं वह भी बड़ी मुश्किल से रुक रुक कर। उसने बताया कि डॉक्टर ने कहा है कि उसके बचने की कोई आशा नहीं है। दवाइयां ना मिलेंगी तो वह कुछ ही दिनों में मर जाएगा । उसके चेहरे पर मर जाने का डर साफ-साफ झलक रहा था। उस लड़के ने बताया कि किसी सड़क दुर्घटना में एक लोहे की छड़ उसकी पेट में जा घुसी थी। फिलहाल ही उसका ऑपरेशन किया गया है। पाइप की नाली के सहारे कुछ दवाइयां उसके पेट में जा रही हैं। वह अपनी कमीज ऊपर उठाकर अपने जख्मों को दिखाने लगा। मैं अपने शुभ, रंगीन और सुखमय यात्रा के मानसिक पटल को धूमिल और गंदा नहीं करना चाहता था इसलिए उसकी जख्मों पर नहीं देखा और सिर नीचे किए हुए उससे बातें करते हुए कहा-अच्छा चलो-चलो ठीक है,बताओ कहां रहते हो? जवाब देने से पहले एक बार फिर उसने पहले लफ्ज़ को दोहराया- "एक पेपर खरीद लीजिए ना भईया!" ,"कुछ हेल्प कर दीजिए ना भईया !"यह उसकी अलग भावना की ओर संकेत करते हुए दूसरी लाइन थी। मैंने फिर पूछा बताओ कहां रहते हो? उसने कहा कि महाराणा प्रताप चौक के पास के एक गांव में रहता हूं।मैंने एक और सवाल किया तुम्हारे साथ और कौन-कौन रहता है? एक पीड़ा बर्दाश्त करते हुए मुंह जहर करके उसने कहा मेरा कोई नहीं है भईया। खपरैल का एक गिरता हुआ मकान और बस एक मेरी बूढ़ी दादी है। एक बार फिर उसने आग्रह करते हुए कहा" एक पेपर खरीद लीजिए ना भईया!", "कुछ हेल्प कर दीजिए ना भईया!"। मुझसे बातचीत के दौरान इन लाइनों को बार-बार दोहरा रहा था। औरंगाबाद शहर के कोलाहल के बीचों - बीच इत्तेफाक से एक घटना घट रही थी जिसका पात्र एक मैं और एक वह लड़का था । सारा शहर सुबह की मस्ती में था और हम दोनों अपने इत्तेफाक को लंबा करने में। लड़का अपने आप बीती सुना चुका था और मैं ध्यानपूर्वक सुन चुका था।
उधर बस खड़ी सीटी बजा रही थी खुलने में मात्र 5 मिनट का समय शेष था। लेकिन मेरी बातचीत उससे जारी थी। मैंने पूछा कितने का है एक अखबार ? उसने जवाब दिया 5 रुपए का एक। मैंने फिर एक सवाल किया क्या तुम्हारे पास खुल्ले हैं? उसने अपनी जेब टटोली और पूरी हथेली जेब में डालकर रेचकियां निकालीं । 10 के दो सिक्के, 2 के पांच सिक्के और 5 के तीन सिक्के गिनकर कुल 45 रुपए मेरी हथेली पर झन से रख दिया। उसके गंदे हाथों से रेचकियों को लेने में मैं संकोच कर रहा था लेकिन उसकी विवशता को मैंने अपनी हथेली पर थाम लिया और आखिरकार कोई आवश्यकता ना होते हुए भी मैंने अपने बटुए से 50 का नोट निकाल कर उसे दिया, एक अखबार लिया और बस पर चलने ही वाला था कि वह फिर मेरे आगे आकर खड़ा हो गया। और वही बात दोहराई " एक पेपर खरीद लीजिए ना भईया,कुछ हेल्प कर दीजिए ना भईया । "
बस खुलने ही वाली थी । बस ड्राइवर बार-बार हॉर्न बजा रहा था । मैंने कुछ झुंझलाते हुए कहा अब क्या है बाबू? उसने फिर वहीं दूसरी लाइन दोहराया कुछ हेल्प कर दीजिए ना भईया । बस कुछ सवारी के इंतजार में अब तक खड़ी थी तो मैं भी थोड़ा ठहरकर सोचने लगा कि आखिर यह लड़का किस तरह की मदद की बात कर रहा है? मुझे अंदाजा हो गया कि वह दिन हीन लड़का है मुझसे सौ,दो सौ, पांच सौ , हजार रुपए के मदद के लिए बार-बार आग्रह कर रहा है। जो कि मैं उस क्षण कर नहीं सकता था। उस लड़के ने जो खुल्ले हमें दिए थे उनको अब तक मैंने जेब में नहीं रखा था क्योंकि बस खुलने वाली थी और हम जल्दी में थे इसलिए खुल्ले मैं अपनी मुट्ठी में ही बंद किए हुए था। आखिरी बार उसने फिर दोहराया कुछ हेल्प कर दीजिए ना भैया । मैं स्तब्ध एक क्षण खड़ा रहा और झट से 10 का सिक्का अपनी मुट्ठी में से निकाल कर उसकी हथेली पर रखा और अपनी सीट पर जाकर बैठ गए। मैं उस लड़के को ₹10 देकर खुद पर गर्व कर रहा था और क्यों नहीं करता इतने बड़े शहर में कौन है जो फिजूल में किसी को 1रु फालतू दे दे जबकि मैं तो10रु उसे लड़के को दे चुका हूं बस ने एक बार फिर से सिटी बजाई और धीरे-धीरे सफर के लिए रवाना हो गई।
जैसे-जैसे गाड़ी औरंगाबाद शहर से बाहर निकल रही थी वैसे वैसे मेरे मन में कई प्रश्न भी अंकित होते चले गये । जो लड़का मुझे मिला वह कोई कोई नया चरित्र, नया विषय, नई बात न थी। शहर में न जाने ऐसे कितने लाचार विवश और बेसहारा लोग हासिए पर अपनी जिंदगी जी रहे हैं। सीट पर बैठे-बैठे मैं इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने लगा। आखिर ऐसे लोगों के बद्तर जिंदगी के लिए जिम्मेवार कौन हो सकता है, उसका परिवार ,आज का समाज, वह व्यक्ति स्वयं,आज के मनुष्यों का एकाकी जीवन या उसका दुर्भाग्य। और भी कई प्रश्न मुझे घेरने लगे थे। उधेड़-बुन में लगे मेरे मन में उस लाचार लड़के का मुखमंडल बार बार उभर कर सामने आ रहा था। जरा सोचिए ,न जाने कितने ही रईस लोग होंगे शहर में लेकिन व्यथित ,विवश और लाचार इन लोगों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है । हां मैं यह कह सकता हूं कि ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो कभी-कभी उनके लिए लंगर चलवा देते हैं, कपड़े बंटवा देते हैं, शीतकाल में कंबल वितरण करवा देते हैं और कुछ आर्थिक मदद भी कर देते हैं और स्वयं के लिए वाह - वाही और तालियां बटोर लेते हैं। यहां तक की कुछ नेता प्रवृत्ति के लोग इन बेचारों पर अपनी राजनीतिक रोटियां भी सेकने से नहीं कतराते लेकिन इतना कर देने से ये लाचार लोग क्या हासिए की जिंदगी से निकलकर मुख्य पृष्ठ पर आ पाते हैं? क्या ये बेचारे लोग जीवन के इस गहरी खाई से बाहर निकल पाते हैं ? नहीं । जरूरत है ऐसे लोगों को आस-पास पड़ोस के लोगों की सहानुभूति की जिनके सहारे वे आम आदमी की तरह समाज की मुख्य धारा में बने रहें । यह वे लोग हैं जिनका जन्म तो परिवार और समाज में ही होता है लेकिन किसी कारणवश समाज के मुख्य धारा से कट कर सड़क पर आ जाते हैं और फिर दया याचना के पात्र बनकर नर्क की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अनुभव किया है कि तरक्की पाने वाले लोगों की तरफ सब अपनी नज़र उठाकर बड़े ही शौक से देखते हैं और उसको वाह-वाही देते हैं। लेकिन ऐसे गिरते हुए लोगों की तरफ से सभी अपना मुंह मोड़ लेते हैं। जरुरत है ऐसे गिरते हुए लोगों को भरसक हो सके तो पूरी तरह गिर जाने से पहले उठाने का प्रयास करें। खैर चलिए लेखक को एक विषय चाहिए जो मिला उसकी रचना भी पूरी हुई । साहित्य के माध्यम से जो संदेश समाज को देना है वह भी दिया।अब पूरी दुनिया को ठीक करने और सहजने की क्षमता तो मुझ में नहीं है लेकिन एक छोटा सा पहल तो कर ही सकते हैं ना। मैं सिट पर बैठा रहा ,गाड़ी दोड रही थी ।धीरे-धीरे उस लड़के का चेहरा जीवन के कोलाहल में विलुप्त हो गया । सुबह-सुबह इस खबर से बेहतर मेरे लिए कोई खबर न थी। बस में केवल औपचारिक रूप से दिखावे के लिए मेरे हाथों में मेरे आंखों के सामने अखबार का वह पहला पन्ना था जिस पर लिखा था प्रभात खबर।
लेखक - धर्मेंद्र कुमार शर्मा