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Wednesday, August 24, 2022

मैं हार गया तुमसे

 


शीर्षक -' मैं हार गया तुमसे '

विधा-कविता

1

मैं खुद पर क्या अभिमान करूं,

जग में अपना क्या नाम करूं।

तु  ना  होती , मैं  ना  होता,

मैं  तो  हूं  मां तुझसे।

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे

2

मुझे शून्य से गर्भ में लाने तक,

नौमाह कष्ट उठाने तक।

अपने लल्ला की खातिर तो,

सहा कष्ट असह्य सबसे।

मां जीत  गई  मुझसे 

मैं हार गया तुमसे

3

जो प्रसव पीड़ा का कष्ट सहा,

मातृत्व तेरा  स्पष्ट रहा।

घर-घर बच्चे मुस्काते हैं,

गुलाब के फूलों-से

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे

4

स्नेह सुधा बरसाती तुम,

जग में ठुकराई जाती तुम।

तेरी ममता के आगे तो,

सारे रिश्ते फीके।

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे

5

धन-दौलत,शोहरत सब पाया,

उऋण ना तुमसे हो पाया।

न कर्ज दूध का भर पाया ,

जीवन भर मां तेरे।

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे


✒️👉रचनाकार-' धर्मेंद्र कुमार शर्मा '

Thursday, May 28, 2020

'स्वीकार'



🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
Our blog 
                             
साहित्य सिंधु की कलम से.....



पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' स्वीकार '


कुछ सोचो,तुम चिंतन एक बार करो,
क्या मिलेगा यदि चिंता सौ बार करो
जो वश में नहीं,उस पर बहस बेकार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

कुछ है कुछ नहीं भी,
जितना मिला उतना ही सही।
व्यर्थ कुछ और मिलने का इंतजार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

किसी को धन मिला,
किसी को मन मिला।
जो मिला उसी को बरकरार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

गुमान उन्हें अमीरी का,
आन तुम्हें फकीरी का।
जो है उसी पर श्रृंगार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

लकीर मत देख अपने हाथ का,
जरूर मिलेगा तुम्हारे भाग्य का।
वक्त का थोड़ा इंतजार करना होगा।
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

खुश रह ना तनिक अफसोस कर,
संभाल खुद को जरा संतोष कर।
व्यर्थ अभिलाषा हजार करना होगा
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

लूटे पांडवों का सब लौट गया,
देखा अभिमान कौरवों का टूट गया।
हक की हकीकत से ही सरोकार रखना होगा,
 जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

सर्वदा सवार रह कर्म पथ पर,
चल उठ आज एक शपथ कर।
पाना है तो प्रयत्न हर बार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।


'शर्मा धर्मेंद्र'

Saturday, May 23, 2020

'डर'


🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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साहित्य सिंधु की कलम से.....




पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' डर '                 

कांटो से है डर कहां?
डर तो है गुलाब से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां दिल टूटने का?
डर तो है ख्वाब से,
देखना!
हिसाब से।

झूठ से है डर कहां?
डर तो है इंसाफ से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां बदनामी से?
डर है उसके दाग से,
देखना!
हिसाब से।

खंजर चुभे ये डर कहां?
डर चुभने वाली बात से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां हानि से खुद के?
डर है उनके लाभ से,
देखना!
हिसाब से।

खोने से है डर कहां?
डर है उसकी याद से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां है गैरों से?
डर है अपने आप से,
देखना!
हिसाब से।

                           
'शर्मा धर्मेंद्र'।           

Thursday, May 21, 2020

'मैं'


🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
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साहित्य सिंधु की कलम से.....





पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' मैं '                 


पीपल,बरगद की छांव सा- मैं,
गहरी दरिया में नाव-सा मैं।
कभी पतझड़,बसंत कभी बरसात रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

बात का पक्का हूं,
इंसान सच्चा हूं।
खड़ा हर वक्त सच के साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

जिस्म महकता मेरा इमानदारी से,
रिश्ता सबसे मेरा,दुराचारी से, सदाचारी  से।
गले लगाकर शत्रुओं के भी साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

 जीवन जैसा भी है मेरा,
संतोष ही महाधन है मेरा।
घोर दरिद्रता,अभाव में भी न उदास रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

बड़ी हैसियत से क्या लेना-देना,
खालूं, खिला दूं प्रभु बस इतना दे देना।
मुस्कुराता अपनी झोपड़ी के पास रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

श्रेष्ठ बन जाने की तमन्ना नहीं,
बिसात भूलकर जीवन हमें जीना नहीं।
आसमां बनकर भी ज़मीं के साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

हाथों मेरे ना कोई बुराई हो,
 कुछ हो अगर तो किसी की भलाई हो।
यथाशक्ति दान धर्म पूण्य की चाह रखूंगा
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।


                                       'शर्मा धर्मेंद्र'

Thursday, May 14, 2020

'पढ़ेगा कौन..?'

🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
Our blog 
साहित्य सिंधु की कलम से.....


पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक-पढे़गा कौन..?


स्याही खत्म हुई मेरे कलम की,
अब भरेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

लोग सब हैं समय के अभाव में,
बेचैन,व्यस्त सब जी रहे तनाव में।
   विश्राम शब्दों की छांव में करेगा कौन?

 लिख तो हा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

आओ एक नई बात बताऊंगा,
मैं तुम्हें जिंदगी के पाठ पढ़ाऊंगा।
मेरी पुस्तक का पाठक बनेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

तुम सोचते हो मैं ही दुखी हूं,
पढ़ कर देख मैं भी दुखी हूं।
विपत्तियों के साथ भी खड़ा रहेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

मैं लिखता रहूं और कोई ना पढे़,
फिर लेखन की गाड़ी आगे कैसे बढ़े?
मेरे विचारों की सवारी करेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

पन्ने उलट-पुलट के रह जाते हो,
अब कौन पढ़ें,ये सोच के रह जाते हो।
अनंत ज्ञान की हिफाजत करेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं
 मगर पढ़ेगा कौन..?

विष को अमृत कर दूं,
मृत को जीवित कर दूं।
मेरे भावों का रसपान करेगा कौन?
   लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

इंसान,इंसान बने कैसे?
मानव महान बने कैसे?
मेरी अभिव्यक्ति को व्यक्ति समझेगा कोन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

उत्तम चरित्र, व्यक्तित्व हो जाए,
जीवन सबका साहित्य हो जाए।
पवित्र पथ पर पांव आखिर धरेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?
'शर्मा धर्मेंद्र'
                                                  

Sunday, December 15, 2019

'क्या-क्या है?'


🌺🌺साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य,हम हमा संस्कृति




पद्य रचना
विधा- कविता
शीर्षक- ' क्या-क्या है? '


दुनिया में तो क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

1

काम है,
क्रोध है,
लोभ है,
मोह है।
और सुन क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

2

सच है,
झूठ है,
तृप्ति है,
भूख है।
और पूछ क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

3

दोस्ती है,
दुश्मनी है,
बनी है,
ठनी है।
सुनता जा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

4

समर्थन है,
बहिष्कार है,
दंड है,
पुरस्कार है।
अनुमान लगा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

5

हर्ष है,
विषाद है,
विरोध है,
विवाद है।
और सुनेगा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

6

नीति है,
अनीति है,
एकता है,
कूटनीति है।
क्या खबर तुझको क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

7

शाम है,
दाम है,
दंड है,
भेद है।
और बताएं क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

8

जन्म है,
मृत्यु है,
बंधन है,
मुक्ति है।
ज्ञात हुआ क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

9

सवाल है,
जवाब है,
हकीकत है,
ख्वाब है।
सोच जरा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

10

ज्ञान है,
अज्ञान है,
अभिमान है,
स्वाभिमान है,
देख इधर क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

11

अंधेरा है,
  उजाला है,
दान है,
घोटाला है।
चुन ले जरा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

12

दौलत है,
सोहरत है, 
कुर्बानी है,
शहादत है।
देख-देख क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

13

विष है,
अमृत है,
शहद है,
घृत है।
गौर कर क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

14

योग है, 
वियोग है,
दुर्भाग्य है,
संयोग है।
और सुनेगा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

15

प्रेम है, 
घृणा है,
तृप्ति है,
तृष्णा है।
कैसे समझाएं क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

16

आसक्ति है,
विरक्ति है,
निर्बलता है,
शक्ति है।
सबको बता क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

17

हिंसा है,
अहिंसा है,
तमाशा है,
चिंता है।
और बताएं क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

18

धर्म है,
अधर्म है,
कर्म है,
विकर्म है।
न जाने और क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

19

स्वर्ग है,
नर्क है,
 समान है,
फर्क है।
मैं भी नहीं जानता क्या-क्या है
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

20

पाप है,
पुण्य हैं,
अनंत है,
शून्य है।
मत पूछ और अभी क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

                        'शर्मा धर्मेंद्र '

Friday, December 13, 2019

'मुझे ज़िंदा कर दो'


🌺🌺साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति


पद्य रचना
विधा - कविता
शीर्षक - 'मुझे जिंदा कर दो'

हे! प्रियतम।
है कौन-सा बंधन,
आते नहीं तुम।
अब तो आओ
क्षीण हो रही
प्राणवायु मेरी।
मुझ में अपना
स्वांस भर दो,
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।

व्याकुल व्याकुल-सा है मन,
प्रेम-विरह प्रताड़ित तन।
तुम अटल आस्था मेरा,
मुझे जीर्ण-शीर्ण, मरणासन्न
काल ने घेरा।
संजीवनी बन निज कर के
मुझको मृदु छुअन से
फिर स्वस्थ कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।


अतृप्त न केवल हम,
अतृप्त भी हो तुम।
विधान यह विधि का,
या है इंसान का।
तुम मेरी,मैं तृष्णा तेरी।
बन बादल प्यासी धरती को
शीतल-शीतल कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।

अनावृष्टि हो, अकाल हो,
जल की एक बूंद तो
अत्यल्प है,अतिलघु,शून्य हैं।
किंतु तृष्णा की तृप्ति
वही एक पहली बूंद है।
आज उस बूंद को
अमृत कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।


                                              शर्मा धर्मेंद्र  






Monday, November 25, 2019

'कौन हो तुम'


🌺🌺 साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति


पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' कौन हो तुम '

दिन-रात जी तोड़ कमाता हूं
बच नहीं पाता बहुत बचाता हूं
कुंडली कंगाल कर डाला तूने 
मुझे दिखाना नीचा छोड़ दो
तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

ना मेरी पत्नी ना प्रेमिका हो
हद है मगर तुम चीज अजूबा हो
 ये कैसा रिश्ता है
 मुझसे ये रिश्ता तोड़ दो
तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

पूछ लो पूछना है जिनसे
तंग हो ग‌ई ज़िन्दगी तुमसे
ना प्यार न मोहब्बत न इश्क
प्यार जताने का ये तरीका छोड़ दो
तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

 ना रोटी ना कपड़ा ना मकान
अभाव मुक्त न हो सका ये इंसान
वीरान कर चुकी हो अब
मेरा बगीचा छोड़ दो
 तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

                                 'शर्मा धर्मेंद्र'

Thursday, November 07, 2019

'मैं हूं गंगा'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य हमारी संस्कृति


 पद्य रचना:

 शीर्षक-'मैं हूं गंगा'

पहले जो बहती थी मैं'
अमृत की बूंद थी मैं।
पावन थी मेरी धारा'
भागीरथ ने था उतारा।
आज हाल उसका लेश भी,
मलाल ना रखूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।
   
स्वर्ग लोक छोड़ आई,
शिव की जटा में समाई।
निकली थी लघु धार में,
पितरों के मैं उद्धार में।
वरदान रूप आके,
अभिशाप ले चलूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

मेरे जल में तुम उतरकर,
पवित्र धारा से गुजरकर।
मन के पाप को धो करके,
धन्य जीवन को करके।
तट को छोड़ भी  जाओ,
मन की व्यथा ना कहूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

संस्कार पर्व वाहिनी,
मैं पाप सर्व नाशिनी।
श्रद्धा हूं आस्था हूं मैं,
मुक्ति का रास्ता हूं मैं। 
पथ मुक्ति का प्रकाशित,
सदियों तक मैं रखूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

देख दुर्दशा  हमारी,
वंचित न दुनिया सारी। 
अपशिष्ट मुझमें डालो,
या विष भी कर डालो।
जहर पीके भी तुम्हारा,
सदा मुक बनी रहूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

संभव समय हो आगे,
जब भाग्य मेरा जागे।
कर जाए इतना निर्मल,
पहले थी जितना निर्मल।
उद्धार अपना वक्त के ही,
हाथों मैं करूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।




                          'शर्मा धर्मेंद्र'


Thursday, October 31, 2019

'मानवता का दीप'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति


पद्य रचना:

शीर्षक-'मानवता का दीप'

जब दीप जले मानवता का
सृष्टि जगमग हो जाएगी,
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।

हृदय में भरा जो दोष यहां
 वह दोष जहां मिट जाएगा,
हर भेद वहां खुल जाएगी
मानव निर्मल बन जाएगा।

खिले उद्यान अहिंसा का
जीवन की कली मुस्काएगी,
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।

मंदिर ना अलग ,मस्जिद ना अलग
ना गिरजाघर गुरुद्वारा हो,
जीने भी दें ,जी लें भी सभी
किसी का ना कोई हत्यारा हो।

जब परहित की मधुबन जो यहां
फल जाएगी फुल जाएगी, 
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।

मानवता का यह दीप चलो
 हम मिलकर साथ जलाएंगे,
होआंधी या तूफान कोई
इस लौ को सदा बचाएंगे

जीवन को बचाने जीवन जब
रक्षा संकल्प उठाएगी
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।


                                                  'शर्मा धर्मेंद्र'

Monday, October 28, 2019

'सात समंदर पार'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति




 पद्य रचना:

 शीर्षक-'सात समंदर पार'

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

ना धूल हटा मेरे पथ का,निशान बनाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

दौड़-धूप आनन-फानन,
बस जहां तहां हुआ।
मेरे सफ़र का अब तक,
श्री गणेश कहां हुआ।
गंतव्य हेतु मुझको,दृढ़ संकल्प उठाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

मैं सोचता हूं कुछ यहां,
पर हो जाता है कुछ।
जो ना सोचूं क्यों रोज-रोज,
होता रहता सब कुछ।
जो सोच लिया वो करके,दुनिया को दिखाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

आगे-आगे जो भी होगा, 
वो देखा जाएगा।
है ज्ञात हमें कि ,
एक बार में ना हो पाएगा
चुकता रहे निशाना, पर हर बार लगाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

बस एक बार जो चल पड़े, 
तो फिर कोई बात नहीं।
हमराही मेरा हो कोई,
या मेरे साथ नहीं।
मदद के हम मोहताज नहीं, सबको बतलाना है।
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

जो विघ्न बाधा रोड़ा पथ में,
आएगा देखेंगे।
आए तूफां सैलाब रुख,
हम उसका मोड़ेंगे।
जिस ओर से सारे लौट चुके, उस ओर जाना है।
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।







Monday, October 21, 2019

* चौक


🌺🌺साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति

पद्य रचना:

शीर्षक-'चौक'
*********************************
ये कितनी पीढ़ियां देख चुका,
एक पीढ़ी अब भी देख रहा
और कितनी पीढ़ियां देखेगा,
यह ज्ञात ना होने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

मैं सदा ही सत्य की राह चलूं,
गीता पर रखकर हाथ कहूं
महाभारत छिड़ता रोज यहां,
 षडयंत्र सब ने कर डाला है। 
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

जरा ठहरो मेरी बात सुनो,
निश्चित ना कोई हालात सुनो 
  कभी जोखिम तो कभी जश्न यहां,
  इस पथ से गुजरने वाला है।
 कई पीढ़ियों का रखवाला है,
 ये चौक बड़ा निराला है।

कभी खट्टी-मीठी बात चले,
शुभ दिन कभी काली रात रहे
सुख-दुख,तृप्ति कभी प्यास यहां,
महादान कभी घोटाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

 होरी, चैता हर ताल बजे,
हुलसे बसंत हर साल सजे
कभी प्रीत के गीत की गूंज उठे,
 कभी हिंसा होने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

हमने इसकी सच्चाई को,
अच्छाई और बुराई को
जो झेल गया कह दूं कैसे,
कुछ बात छुपाने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

किसका सफर कब तक है यहां,
रुक जाए कोई जाने कहां
हिसाब किताब बराबर तो,
ये सबका रखनेवाला है।
 कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

क‌ई आए कितने चले गए,
कुछ बुरे भी थे कुछ भले गए
ये मंच वही पुराना बस,
किरदार बदलने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।
             

                    'शर्मा धर्मेंद्र'

Monday, October 14, 2019

* उसपार तू चल


🌺साहित्य सिंधु🌺
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति


पद्य रचना:
शीर्षक-'उस पार तू चल'
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इस पार तो केवल डर ही डर
फैला है देख तू जिधर-उधर,
कुंवा है इधर, खाई है उधर
जाएगा बचके बोल किधर।
इस डर पर विजय जो पाना है
तो डूब सिंधु की धार में चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

चल लपक-झपक मनमानी कर
कुछ कपट कुपित नादानी कर,
साधु मन को अभिमानी कर
सूरज की आग को पानी कर।
कर शंखनाद दिग्गज डोले,
सिंहों-सा कर हुंकार तू चल।
राही रे उठ उस पार तू चल।

बारिश हो मूसलाधार यदि
नदियां उफने लगातार यदि,
हो बिजली की बौछार यदि
करे डगमग जो पतवार यदि।
कर बलि स्वयं की आगे बढ़,
मुड़ मत जीवन को वार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

सागर का नीर सुखा लो तुम
हाथों पर अचल उठा लो तुम
ब्रह्मांड को माप भी डालो तुम
अंतर में जुनूं जब पा लो तुम
मैं की शक्ति क्यों भूल रहा,
अपने बल को पहचान तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

कुछ भी कर बच ना सकेगा तू
मृत्यू का ग्रास बनेगा तू,
बंद पिंजरे में क्या रहेगा तू
क्या संकट से ना लड़ेगा तू।
तय मरना कल या आज है तो
कल की मत सोच मर आज तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

अंतिम तक जोर लगाओ तूम 
मन का विश्वास जगाओ तुम
जरा जोश जुनून से आओ तुम
फिर एक छलांग लगाओ तुम
गिर-गिर कर उठ ,उठ-उठ कर गिर 
हर बार तू उठ हर बार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

हाथों में जो है लकीर बना
देखा जिसने वो फकीर बना
जो वीर  धीर गंभीर बना
जग उसका ही जागीर बना
किस्मत के भरोसे बैठ ना अब
सुन मंजिल की पुकार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
राही रे उठ उस पार तू चल।

                                        'शर्मा धर्मेंद्र'







Sunday, October 13, 2019

* ईमानदारी



🌺साहित्य सिंधु🌺
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति



पद्य रचना:

शीर्षक-'ईमानदारी'

तरक्की के शाख पर चढ़ना,
ईमानदारी को पहले ताक पर रखना।

दूर तक  जा सकते हो

एक अच्छा मुकाम पा सकते हो
गरीबों का हक बांट कर रखना, 
ईमानदारी को पहले ताक पर रखना।

रात-दिन काट लो मेहनत में गिन-गिन 
फूटी कौड़ी ना रुकेगी हथेली पर एक भी दिन
ध्यान जमीरे ख्यालात पर रखना,
ईमानदारी को पहले ताक पर रखना।

बात औरों के लाभ की मत छोड़ दो
अपने लिए औरों का सिर मत फोड़ दो
ख्याल किसी के माली हालात पर रखना,
ईमानदारी को पहले ताक पर रखना।

ऊंच-नीच की खाई पाट लो
आपस में बराबर बांट लो
श्रम अपना ही अपने हाथ पर रखना
ईमानदारी को पहले ताक पर रखना।

बनूंगा अमीर यह सोचते सोचते
उम्र ढल ज‌एगी आंसू पोंछते- पोछते
ख्याल जरूर इस बात पर रखना
ईमानदारी को पहले ताक पर रखना।


                                                 
                                      'शर्मा धर्मेंद्र'

Saturday, October 12, 2019

* लिखने लगा हूं


🌺 साहित्य सिंधु 🌺 

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पद्य रचना :

शीर्षक-'लिखने लगा हूं'


           जहां में जाहिल सा
           तूफां में साहिल सा
           दिखने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           अपने हालात पर
           बिस्तर में रात भर
           सिसकने  लगा हूं,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           कुंठित संसार में
           भावों के धार में
           भीगने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           शहर कभी गांव में
           धूप कभी छांव में
           दिखने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           किसी के तन को
           किसी के मन को
           खींचने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           पसीने की बूंद से 
           धरती को खून से
           सींचने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           प्रीत कभी प्रहार से
           दुश्मन और यार से
           मिलने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           खुद के काम पर
           गैरों के नाम पर
           बिकने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।

           मंजिल की खोज में
           मुश्किल की गोद में
           टिकने लगा हूं ,
           अब मैं लिखने लगा हूं।
                                                      
                                             'शर्मा धर्मेंद्र'