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साहित्य सिंधु की कलम से.....
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साहित्य सिंधु की कलम से.....
(शीर्षक - ' बात चले ')
कंचन काया की बात चले,
तो हो वो बहार चमन की तरह।
जीवन के आनंद की बात चले,
तो हो निश्चल बचपन की तरह।
आजादी की जब बात चले,
तो हो खुले गगन की तरह।
मीठी वाणी की बात चले,
तो घी, मकरंद , मक्खन की तरह।
घर-घर खुशियों की बात चले,
फूलों ,बागों ,उपवन की तरह।
जब मात-पिता की बात चले,
तो हो देव-पूजन की तरह।
पति-पत्नी प्रेम की बात चले,
टिप-टिप , रिम-झिम सावन की तरह।
जब भ्रातृ प्रेम की बात चले,
हो भरत और लक्ष्मण की तरह।
वैरी और वैर की बात चले,
तो हो वो राम ,रावण की तरह
सज्जनों की सजनता की बात चले,
तो हो शीतल चंदन की तरह।
हृदय के गर्व की बात चले,
किसी चरित्रवान सज्जन की तरह।
✒️👉रचनाकार-' धर्मेंद्र कुमार शर्मा '
शीर्षक -' मैं हार गया तुमसे '
विधा-कविता
1
मैं खुद पर क्या अभिमान करूं,
जग में अपना क्या नाम करूं।
तु ना होती , मैं ना होता,
मैं तो हूं मां तुझसे।
मां जीत गई मुझसे,
मैं हार गया तुमसे
2
मुझे शून्य से गर्भ में लाने तक,
नौमाह कष्ट उठाने तक।
अपने लल्ला की खातिर तो,
सहा कष्ट असह्य सबसे।
मां जीत गई मुझसे
मैं हार गया तुमसे
3
जो प्रसव पीड़ा का कष्ट सहा,
मातृत्व तेरा स्पष्ट रहा।
घर-घर बच्चे मुस्काते हैं,
गुलाब के फूलों-से
मां जीत गई मुझसे,
मैं हार गया तुमसे
4
स्नेह सुधा बरसाती तुम,
जग में ठुकराई जाती तुम।
तेरी ममता के आगे तो,
सारे रिश्ते फीके।
मां जीत गई मुझसे,
मैं हार गया तुमसे
5
धन-दौलत,शोहरत सब पाया,
उऋण ना तुमसे हो पाया।
न कर्ज दूध का भर पाया ,
जीवन भर मां तेरे।
मां जीत गई मुझसे,
मैं हार गया तुमसे
✒️👉रचनाकार-' धर्मेंद्र कुमार शर्मा '
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साहित्य सिंधु की कलम से.....
कर में लेकर कर घूमती हूं ,
देखा कि संग-संग झूमती हूं ,
कलि-कुसुम , उपवन को चूमती हूं ,
लुक-छिप नटखट को ढूंढती हूं ।
कभी उनके पीछे भागी मैं, कभी बांके मेरे पीछे धाए,
इक रात श्याम सपने में आए।
काश! कि एक दिन मिल जाते ,
तन-मन, रोम-रोम खिल जाते ,
हृदय के जख्म सब सिल जाते ,
मन व्यथा दूर तिल-तिल जाते।
यह कोरी कल्पना कर कर के , सखी मेरा मन विह्वल जाए,
इक रात श्याम सपने में आए।
रचनाकार-धर्मेन्द्र कुमार शर्मा,