🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
पद्य रचना
विधा- कविता
शीर्षक- 'आज-कल के लइकन
(मगही आंचलिक हास्य कविता)
संदेश- समकालीन युवा पीढ़ी की चंचलता एवं स्वच्छंदता से पाठकों को अवगत कराना,
किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाते हुए पाठकों का पूर्ण मनोरंजन करना।
लेखक स्वयं ऐसी भावनाओं के वशीभूत पूर्व काल में रह चुका है।
शीर्षक- 'आज-कल के लइकन
(मगही आंचलिक हास्य कविता)
संदेश- समकालीन युवा पीढ़ी की चंचलता एवं स्वच्छंदता से पाठकों को अवगत कराना,
किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाते हुए पाठकों का पूर्ण मनोरंजन करना।
लेखक स्वयं ऐसी भावनाओं के वशीभूत पूर्व काल में रह चुका है।
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कान बहिर पीठ, गहींड़ करई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
रात के दिन,
आम के नीम,
कहब औंरा, तो बहेरा बुझई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
दुनिया लाचार हे,
कहल बेकार हे,
समझवला प उल्टे समझावे लगई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ
लिखावल-पढावल,
पइसा लगावल,
बाबूजी के धन हईन, उड़वई चलई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
ना चले के लूर,
ना बोले के सहूर।
का जनि कईसन पढाई करई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
कहब कि सुन-सुन,
करे लगतन भुन-भुन।
घुनूर-घुनूर मने में गुरगुराई रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
दिन-रात इयार के,
रहतन दरबार में,
घरे से खाके टिकीया-उडान भगई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
सेंट-मेंट मार के,
जूलफी संवार के।
फटफटिया प दिन भ लदाएल रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
ना चले के लूर,
ना बोले के सहूर।
का जनि कईसन पढाई करई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
कहब कि सुन-सुन,
करे लगतन भुन-भुन।
घुनूर-घुनूर मने में गुरगुराई रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
दिन-रात इयार के,
रहतन दरबार में,
घरे से खाके टिकीया-उडान भगई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
सेंट-मेंट मार के,
जूलफी संवार के।
फटफटिया प दिन भ लदाएल रहई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
चेत ना फिकीर,
उड़वइ हथ तितीर
बाबू जी खेत में मरई-धंसई हथ,
चेत ना फिकीर,
उड़वइ हथ तितीर
बाबू जी खेत में मरई-धंसई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
कहई थी एने,
कहई थी एने,
तो जाई हथ ओने,
रस्ता बिलाई नियन कटई चलई हथ,
आज-कल के लइकन काहां सुनई हथ।
शर्मा धर्मेंद्र
शर्मा धर्मेंद्र