Tuesday, January 07, 2020

'आजकल के लईन'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति

पद्य रचना
विधा- कविता
शीर्षक- 'आज-कल के ल‌इकन

(मगही आंचलिक हास्य कविता)

संदेश- समकालीन युवा पीढ़ी की चंचलता एवं स्वच्छंदता से पाठकों को अवगत कराना,

किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाते हुए पाठकों का पूर्ण मनोरंजन करना।

लेखक स्वयं ऐसी भावनाओं के वशीभूत पूर्व काल में रह चुका है।


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कान बहिर पीठ, गहींड़ कर‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

रात के दिन,
आम के नीम,
कहब औंरा, तो बहेरा बुझ‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

दुनिया लाचार हे,
कहल बेकार हे,
 समझवला प उल्टे समझावे लग‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ

लिखावल-पढावल,
प‌इसा लगावल,
बाबूजी के धन ह‌ईन, उड़व‌ई चल‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

ना चले के लूर,
ना बोले के सहूर।
का जनि क‌ईसन पढा‌ई कर‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

कहब कि सुन-सुन,
करे लगतन भुन-भुन।
घुनूर-घुनूर मने में गुरगुरा‌ई रह‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

दिन-रात  इयार के,
रहतन  दरबार में,
घरे से खाके टिकीया-उडान भग‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

सेंट-मेंट मार के,
जूलफी संवार के।
फटफटिया प दिन भ लदाएल रह‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

चेत ना  फिकीर,
उड़व‌इ हथ तितीर
बाबू जी खेत में मर‌ई-धंस‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ।

कह‌ई थी एने,
तो जाई हथ ओने,
रस्ता बिला‌ई नियन कट‌ई चल‌ई हथ,
आज-कल के ल‌इकन काहां सुन‌ई हथ। 

                                      शर्मा धर्मेंद्र
















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