Thursday, November 07, 2019

'मैं हूं गंगा'


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 पद्य रचना:

 शीर्षक-'मैं हूं गंगा'

पहले जो बहती थी मैं'
अमृत की बूंद थी मैं।
पावन थी मेरी धारा'
भागीरथ ने था उतारा।
आज हाल उसका लेश भी,
मलाल ना रखूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।
   
स्वर्ग लोक छोड़ आई,
शिव की जटा में समाई।
निकली थी लघु धार में,
पितरों के मैं उद्धार में।
वरदान रूप आके,
अभिशाप ले चलूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

मेरे जल में तुम उतरकर,
पवित्र धारा से गुजरकर।
मन के पाप को धो करके,
धन्य जीवन को करके।
तट को छोड़ भी  जाओ,
मन की व्यथा ना कहूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

संस्कार पर्व वाहिनी,
मैं पाप सर्व नाशिनी।
श्रद्धा हूं आस्था हूं मैं,
मुक्ति का रास्ता हूं मैं। 
पथ मुक्ति का प्रकाशित,
सदियों तक मैं रखूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

देख दुर्दशा  हमारी,
वंचित न दुनिया सारी। 
अपशिष्ट मुझमें डालो,
या विष भी कर डालो।
जहर पीके भी तुम्हारा,
सदा मुक बनी रहूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

संभव समय हो आगे,
जब भाग्य मेरा जागे।
कर जाए इतना निर्मल,
पहले थी जितना निर्मल।
उद्धार अपना वक्त के ही,
हाथों मैं करूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।




                          'शर्मा धर्मेंद्र'




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