Friday, June 28, 2024

प्रभात खबर

🌺साहित्य सिंधु 🌺

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साहित्य सिंधु की कलम से......



विधा -वास्तवीक घटना पर आधारित कहानी 

लेखक - धर्मेंद्र कुमार शर्मा 

स्वयं पर एक आरोप लगा रहा हूं कि साहित्यिक विचार रखने के बावजूद भी इन दिनों मैं एक लापरवाह लेखक हूं। लापरवाह इस मामले में हूं कि अत्यंत चिंतनशील होने के बावजूद भी मेरा लेखन कार्य ठप पड़ा हुआ है। वैसे अब तक मैं लगभग 50 कविताएं और तीन चार सौ शेरो-शायरी लिख चुका हूं। कई अन्य रचनाएं भी मेरी होंगी। फिलहाल समय का अभाव, आलस्य या यूं कह लीजिए कि जिंदगी के अगड़म-बगड़म, बा‌इस-बहत्तर में उलझ चुका हूं और इस उलझन के कारण ही शायद बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं । खैर अब आप सब पाठक गण मेरे बारे में जो कुछ भी सोचें आपको पूरी आजादी है। वैसे भी आप लोगों की सोच पर मेरा क्या अख्तियार है।


जीवन का सफर अंतिम सांस तक अनवरत चलते रहता है और इंसान इस जीवन के सफर में भी आनेको काल्पनिक सफर करते रहता है। इसी तरह एक दिन किसी परीक्षा हेतु मैं भी सफर पर निकला। परीक्षा पटना में होनी थी। पास ही एनटीपीसी से मैने बस पकड़ा और सफर के लिए रवाना हो ग‌ए । सुबह के 5-6 बज रहे थे। गर्मी का मौसम था,एयर कंडीशनर बस में बैठते ही मैं गर्मी के मौसम से बेखबर हो गया और खिड़कियों से चलचित्र की भांति बदलते हुए दृश्य को निहारते हुए एक अलौकिक सुख की अनुभूति करने लगा । लगातार दो-तीन महीने गर्मी के मौसम को झेलने के बाद एसी बस में बैठने पर मैंने एक लंबी राहत की सांस ली। बस अपने रफ्तार में थी और मैं विचारों के मंथन में। यहां एक बात बताते चलूं कि खासतौर से मेरे लिए आत्म चिंतन का सबसे बढ़िया जगह है नाई की दुकान पर हजामत बनवाने के लिए इंतजार करना या ट्रेन, बस से कोई यात्रा करना।खिड़की के पास बैठे मैं चिंतनशील होता चला जा रहा था । जिस परीक्षा को मैं पटना देने जा रहा था उसके लिए हमारे दिमाग में किसी भी तरह का कोई तनाव नहीं था। अब इतना तनाव लेकर आदमी चले तो सफर का आनंद ही क्या रह ज‌एगा। मैं वर्तमान जीवन के सांसारिक बोझ को दिमाग से उतर चुका था ।मैं तो अब उस इत्तेफाक को तलाशने लगा जिस पर कुछ लिखा जाए। खैर गाड़ी चलती -ठहरती अपने सवारियों को लेते हुए आगे बढ़ रही थी ।


जब गाड़ी औरंगाबाद रमेश चौक पहुंचीं तो काफी देर रुकी। कंडक्टर से पता किया तो गाड़ी खुलने में देर थी। सोचा,बस से नीचे उतर कर थोड़ा हाथ पांव सीधे कर लिए जाएं । जैसे ही बस से उतरकर एक तरफ खड़ा हुआ , एक दुबले पतले और छोटे कद का लगभग 10-12 साल का लड़का सर पर अखबार का एक बंडल लिए अपने कदमों को नापते हुए एक हाथ अपने कमर पर रखे हुए कुछ व्यथित मन से मेरे पास आकर खड़ा हो गया। अजीब बात है, उधर कुछ ही देर पहले जिस इत्तेफाक के तलाश में था शायद अब वह मेरे सामने था। मैं सोचने लगा कि क्या यही लड़का है जिस पर मेरी कलम चलेगी ? देखना यह था कि यह वास्तविक घटना किस तरह आगे बढ़ती है। वास्तविक घटना को आगे बढ़ने से पहले कुछ बातें आपको बताते चलूं तो ठीक ही होगा।


 उसे लड़के का हुलिया कुछ इस प्रकार था, उस लड़के ने अपने साइज से कुछ बड़ा ही कमीज पहन रखा था। मैला -कुचैला एक फूल पैंट और पैर में टूटी हुई चप्पल। किसी शारीरिक पीड़ा से बार-बार उसके चेहरे पर तिलमिलाती असह्य कष्ट की रेखा उभर जा रही थी। उसे देखकर कोई भी अंदाजा लगा लगा सकता है कि वह एक विवश , लाचार और मजबूर लड़का है। लेकिन शहर में उसके चेहरे की विवशता की भाषा कौन पढ़ सकता था? भावों एवं संवेदनाओं की गहरी खाई मैं गोता लगाने के लिए तो एक लेखक या कवि का ही ह्रदय चाहिए जो सब किसी के पास नहीं होता। लेकिन मैं यह सब महसूस कर सकता हूं और करने लायक हो चुका हूं ।


आमतौर पर आपने देखा होगा कि शहरों , बाजारों या अन्य किसी जगह पर फेरी वाले और रेहड़ी वाले एक विशेष प्रकार की आवाजों के साथ सामान बेचा करते हैं। उनकी आवाजों में एक तरह की सम्मोहन शक्ति, ऊर्जा और ताजगी होती है। बड़े ही जोश और मनोरंजक तरीके से वह अपने ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं लेकिन मेरे सामने जो लड़का अख़बार लिए खड़ा था उसमें ऐसी कोई बात नहीं थी । खैर यह वास्तविक घटना आगे बढ़ी।वह ज्यों ही मेरे पास आकर खड़ा होता है, उसका पहला लफ्ज़ था-" एक पेपर खरीद लीजिए ना भ‌ईया ! "। उस लड़के के इस एक ही लफ्ज़ ने उसके भूत, वर्तमान और भविष्य की परिस्थितियों को मेरे सामने लाकर खड़ा कर दिया । मैं पेपर पढ़ने का न तो शौकीन हूं और न ही समाचार पत्र मेरे दैनिक जीवन का अंग ही है।मैंने झट से खुश्क-रुखा जवाब दिया- क्यों खरीद लूं? अब दो अनजान लोगों के बीच में बातचीत का सिलसिला जारी हो चुका था। अब औरंगाबाद शहर में हमारे और उसे लड़के के सिवा शायद कोई नहीं था मैंने ये सिलसिला आगे बढ़ाते हुए पूछा- नाम क्या है तुम्हारा? उसने जवाब दिया-मनीष। मैंने फिर पूछा- कोई अच्छा-सा काम क्यों नहीं कर लेते? जवाब देते हुए व्यथित मन से उसने कहा-नहीं भ‌ईया मैं कोई काम नहीं कर सकता केवल चल सकता हूं वह भी बड़ी मुश्किल से रुक रुक कर। उसने बताया कि डॉक्टर ने कहा है कि उसके बचने की कोई आशा नहीं है। दवाइयां ना मिलेंगी तो वह कुछ ही दिनों में मर जाएगा । उसके चेहरे पर मर जाने का डर साफ-साफ झलक रहा था। उस लड़के ने बताया कि किसी सड़क दुर्घटना में एक लोहे की छड़ उसकी पेट में जा घुसी थी। फिलहाल ही उसका ऑपरेशन किया गया है। पाइप की नाली के सहारे कुछ दवाइयां उसके पेट में जा रही हैं। वह अपनी कमीज ऊपर उठाकर अपने जख्मों को दिखाने लगा। मैं अपने शुभ, रंगीन और सुखमय यात्रा के मानसिक पटल को धूमिल और गंदा नहीं करना चाहता था इसलिए उसकी जख्मों पर नहीं देखा और सिर नीचे किए हुए उससे बातें करते हुए कहा-अच्छा चलो-चलो ठीक है,बताओ कहां रहते हो? जवाब देने से पहले एक बार फिर उसने पहले लफ्ज़ को दोहराया- "एक पेपर खरीद लीजिए ना भ‌ईया!" ,"कुछ हेल्प कर दीजिए ना भईया !"यह उसकी अलग भावना की ओर संकेत करते हुए दूसरी लाइन थी। मैंने फिर पूछा बताओ कहां रहते हो? उसने कहा कि महाराणा प्रताप चौक के पास के एक गांव में रहता हूं।मैंने एक और सवाल किया तुम्हारे साथ और कौन-कौन रहता है? एक पीड़ा बर्दाश्त करते हुए मुंह जहर करके उसने कहा मेरा कोई नहीं है भ‌ईया। खपरैल का एक गिरता हुआ मकान और बस एक मेरी बूढ़ी दादी है। एक बार फिर उसने आग्रह करते हुए कहा" एक पेपर खरीद लीजिए ना भ‌ईया!", "कुछ हेल्प कर दीजिए ना भ‌ईया!"। मुझसे बातचीत के दौरान इन लाइनों को बार-बार दोहरा रहा था। औरंगाबाद शहर के कोलाहल के बीचों - बीच इत्तेफाक से एक घटना घट रही थी जिसका पात्र एक मैं और एक वह लड़का था । सारा शहर सुबह की मस्ती में था और हम दोनों अपने इत्तेफाक को लंबा करने में। लड़का अपने आप बीती सुना चुका था और मैं ध्यानपूर्वक सुन चुका था।


उधर बस खड़ी सीटी बजा रही थी खुलने में मात्र 5 मिनट का समय शेष था। लेकिन मेरी बातचीत उससे जारी थी। मैंने पूछा कितने का है एक अखबार ? उसने जवाब दिया 5 रुपए का एक। मैंने फिर एक सवाल किया क्या तुम्हारे पास खुल्ले हैं? उसने अपनी जेब टटोली और पूरी हथेली जेब में डालकर रेचकियां निकालीं । 10 के दो सिक्के, 2 के पांच सिक्के और 5 के तीन सिक्के गिनकर कुल 45 रुप‌ए मेरी हथेली पर झन से रख दिया। उसके गंदे हाथों से रेचकियों को लेने में मैं संकोच कर रहा था लेकिन उसकी विवशता को मैंने अपनी हथेली पर थाम लिया और आखिरकार कोई आवश्यकता ना होते हुए भी मैंने अपने बटुए से 50 का नोट निकाल कर उसे दिया, एक अखबार लिया और बस पर चलने ही वाला था कि वह फिर मेरे आगे आकर खड़ा हो गया। और वही बात दोहराई " एक पेपर खरीद लीजिए ना भ‌ईया,कुछ हेल्प कर दीजिए ना भ‌ईया । "


 बस खुलने ही वाली थी । बस ड्राइवर बार-बार हॉर्न बजा रहा था । मैंने कुछ झुंझलाते हुए कहा अब क्या है बाबू? उसने फिर वहीं दूसरी लाइन दोहराया कुछ हेल्प कर दीजिए ना भ‌ईया । बस कुछ सवारी के इंतजार में अब तक खड़ी थी तो मैं भी थोड़ा ठहरकर सोचने लगा कि आखिर यह लड़का किस तरह की मदद की बात कर रहा है? मुझे अंदाजा हो गया कि वह दिन हीन लड़का है मुझसे सौ,दो सौ, पांच सौ , हजार रुपए के मदद के लिए बार-बार आग्रह कर रहा है। जो कि मैं उस क्षण कर नहीं सकता था। उस लड़के ने जो खुल्ले हमें दिए थे उनको अब तक मैंने जेब में नहीं रखा था क्योंकि बस खुलने वाली थी और हम जल्दी में थे इसलिए खुल्ले मैं अपनी मुट्ठी में ही बंद किए हुए था। आखिरी बार उसने फिर दोहराया कुछ हेल्प कर दीजिए ना भैया । मैं स्तब्ध एक क्षण खड़ा रहा और झट से 10 का सिक्का अपनी मुट्ठी में से निकाल कर उसकी हथेली पर रखा और अपनी सीट पर जाकर बैठ गए। मैं उस लड़के को ₹10 देकर खुद पर गर्व कर रहा था और क्यों नहीं करता इतने बड़े शहर में कौन है जो फिजूल में किसी को 1रु फालतू दे दे जबकि मैं तो10रु उसे लड़के को दे चुका हूं बस ने एक बार फिर से सिटी बजाई और धीरे-धीरे सफर के लिए रवाना हो गई।


 जैसे-जैसे गाड़ी औरंगाबाद शहर से बाहर निकल रही थी वैसे वैसे मेरे मन में कई प्रश्न भी अंकित होते चले गये । जो लड़का मुझे मिला वह कोई कोई नया चरित्र, नया विषय, नई बात न थी। शहर में न जाने ऐसे कितने लाचार विवश और बेसहारा लोग हासि‌ए पर अपनी जिंदगी जी रहे हैं। सीट पर बैठे-बैठे मैं इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने लगा। आखिर ऐसे लोगों के बद्तर जिंदगी के लिए जिम्मेवार कौन हो सकता है, उसका परिवार ,आज का समाज, वह व्यक्ति स्वयं,आज के मनुष्यों का एकाकी जीवन या उसका दुर्भाग्य। और भी कई प्रश्न मुझे घेरने लगे थे। उधेड़-बुन में लगे मेरे मन में उस लाचार लड़के का मुखमंडल बार बार उभर कर सामने आ रहा था। जरा सोचिए ,न जाने कितने ही रईस लोग होंगे शहर में लेकिन व्यथित ,विवश और लाचार इन लोगों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है । हां मैं यह कह सकता हूं कि ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो कभी-कभी उनके लिए लंगर चलवा देते हैं, कपड़े बंटवा देते हैं, शीतकाल में कंबल वितरण करवा देते हैं और कुछ आर्थिक मदद भी कर देते हैं और स्वयं के लिए वाह - वाही और तालियां बटोर लेते हैं। यहां तक की कुछ नेता प्रवृत्ति के लोग इन बेचारों पर अपनी राजनीतिक रोटियां भी सेकने से नहीं कतराते लेकिन इतना कर देने से ये लाचार लोग क्या हासिए की जिंदगी से निकलकर मुख्य पृष्ठ पर आ पाते हैं? क्या ये बेचारे लोग जीवन के इस गहरी खाई से बाहर निकल पाते हैं ? नहीं । जरूरत है ऐसे लोगों को आस-पास पड़ोस के लोगों की सहानुभूति की जिनके सहारे वे आम आदमी की तरह समाज की मुख्य धारा में बने रहें । यह वे लोग हैं जिनका जन्म तो परिवार और समाज में ही होता है लेकिन किसी कारणवश समाज के मुख्य धारा से कट कर सड़क पर आ जाते हैं और फिर दया याचना के पात्र बनकर नर्क की जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अनुभव किया है कि तरक्की पाने वाले लोगों की तरफ सब अपनी नज़र उठाकर बड़े ही शौक से देखते हैं और उसको वाह-वाही देते हैं। लेकिन ऐसे गिरते हुए लोगों की तरफ से सभी अपना मुंह मोड़ लेते हैं। जरुरत है ऐसे गिरते हुए लोगों को भरसक हो सके तो पूरी तरह गिर जाने से पहले उठाने का प्रयास करें। खैर चलिए लेखक को एक विषय चाहिए जो मिला उसकी रचना भी पूरी हुई । साहित्य के माध्यम से जो संदेश समाज को देना है वह भी दिया।अब पूरी दुनिया को ठीक करने और सहजने की क्षमता तो मुझ में नहीं है लेकिन एक छोटा सा पहल तो कर ही सकते हैं ना। मैं सिट पर बैठा रहा ,गाड़ी दोड रही थी ।धीरे-धीरे उस लड़के का चेहरा जीवन के कोलाहल में विलुप्त हो गया । सुबह-सुबह इस खबर से बेहतर मेरे लिए कोई खबर न थी। बस में केवल औपचारिक रूप से दिखावे के लिए मेरे हाथों में मेरे आंखों के सामने अखबार का वह पहला पन्ना था जिस पर लिखा था प्रभात खबर।

 लेखक - धर्मेंद्र कुमार शर्मा


Wednesday, April 24, 2024

बात चले

 


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   साहित्य सिंधु की कलम से.....


पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक-  ' बात चले '

(शीर्षक - '  बात चले ')

कंचन काया की बात चले,
तो हो वो हार  चमन की तरह।

                 जीवन के आनंद की बात चले,
                 तो हो निश्चल बचपन की तरह।

आजादी की जब बात चले,
तो हो खुले गगन की तरह।

                  मीठी वाणी की बात चले,
                  तो घी, मकरंद , मक्खन की तरह।

घर-घर खुशियों की बात चले,
फूलों ,बागों ,उपवन की तरह।

                 जब मात-पिता की बात चले,
                 तो हो देव-पूजन की तरह।

पति-पत्नी  प्रेम  की बात चले,
टिप-टिप , रिम-झिम सावन की तरह।

                जब भ्रातृ प्रेम की बात चले,
                हो भरत और लक्ष्मण की तरह।

वैरी और वैर की बात चले,
तो हो वो राम ,रावण की तरह

                  सज्जनों की सजनता की बात चले,
                  तो हो शीतल चंदन की तरह।

हृदय के गर्व की बात चले,
किसी चरित्रवान सज्जन की तरह।
               
                        ✒️👉रचनाकार-' धर्मेंद्र कुमार शर्मा '

Wednesday, August 24, 2022

मैं हार गया तुमसे

 


शीर्षक -' मैं हार गया तुमसे '

विधा-कविता

1

मैं खुद पर क्या अभिमान करूं,

जग में अपना क्या नाम करूं।

तु  ना  होती , मैं  ना  होता,

मैं  तो  हूं  मां तुझसे।

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे

2

मुझे शून्य से गर्भ में लाने तक,

नौमाह कष्ट उठाने तक।

अपने लल्ला की खातिर तो,

सहा कष्ट असह्य सबसे।

मां जीत  गई  मुझसे 

मैं हार गया तुमसे

3

जो प्रसव पीड़ा का कष्ट सहा,

मातृत्व तेरा  स्पष्ट रहा।

घर-घर बच्चे मुस्काते हैं,

गुलाब के फूलों-से

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे

4

स्नेह सुधा बरसाती तुम,

जग में ठुकराई जाती तुम।

तेरी ममता के आगे तो,

सारे रिश्ते फीके।

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे

5

धन-दौलत,शोहरत सब पाया,

उऋण ना तुमसे हो पाया।

न कर्ज दूध का भर पाया ,

जीवन भर मां तेरे।

मां जीत  गई मुझसे,

मैं हार गया तुमसे


✒️👉रचनाकार-' धर्मेंद्र कुमार शर्मा '

Friday, July 15, 2022

इक रात श्याम सपने में आए।

 

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विधा - कविता
रचनाकार - धर्मेंद्र कुमार शर्मा 


कर में लेकर कर घूमती हूं ,

देखा कि संग-संग झूमती हूं ,

कलि-कुसुम , उपवन को चूमती हूं ,

लुक-छिप नटखट को ढूंढती हूं ।

कभी उनके पीछे भागी मैं, कभी बांके मेरे पीछे धाए,

इक रात श्याम सपने में आए।

       

काश! कि एक दिन मिल जाते ,

तन-मन, रोम-रोम खिल जाते ,

हृदय के जख्म सब सिल जाते ,

मन व्यथा दूर तिल-तिल जाते।

यह कोरी कल्पना कर कर के , सखी मेरा मन विह्वल जाए,

इक रात श्याम सपने में आए।


 रचनाकार-धर्मेन्द्र कुमार शर्मा, 




Friday, November 26, 2021

 न‌ई सुबह

Thursday, June 10, 2021

Saturday, November 28, 2020

Thursday, November 19, 2020

Friday, September 04, 2020

ईश्वर की अनुभूति

 

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संस्मरण - ' ईश्वर की अनुभूति '

लेखक - धर्मेंद्र कुमार शर्मा 


वक्त 2011-2012 का था। हमारी बी.ए. की परीक्षा गांव से लगभग 50 किलोमीटर दूर औरंगाबाद शहर में हो रही थी। गांव से हम दो मित्र एक साथ हर दिन मोटरसाइकिल से जाया करते थे। मोटरसाइकिल हमारे दूसरे मित्र की थी। 10 बजे एग्जाम सेंटर पर पहुंचना पड़ता था। 


एक दिन हम दोनों सुबह 7:00 बजे घर से निकले, गांव से लगभग 3 किलोमीटर दूर एक छोटे से बाजार बड़ेम में पहुंचते-पहुंचते हमारे मित्र की मोटरसाइकिल खराब हो गई । धक से मेरा कलेजा बैठ गया, अब तो आज की परीक्षा छूटी । बी.ए. तृतीय वर्ष की परीक्षा थी, एक विषय की भी परीक्षा छूट गई तो पूरा तीन साल बरबाद। हमारे मित्र ने कहा यार किसी से गाड़ी मांगनी पड़ेगी। संयोग अच्छा था, हमारे मित्र ने बाजार में जान पहचान के लोगों से किसी तरह एक दूसरी मोटरसाइकिल मांग ली अपनी बाइक वहीं लगा दी। 8:00 यहीं बज चुका था। जिसने बाइक दी उस भले मानस का मन ही मन धन्यवाद एवं असीम आभार प्रकट करते हुए मैं आश्वस्त हो गया कि अब परीक्षा नहीं छुटेगी । पुनः हम दोनों परीक्षा के लिए निकल चुके थे।


कहा गया है कि संपत्ति के साथ संपत्ति और विपत्ति के साथ विपत्ती भागती है। संपत्ति की तो बात आज थी नहीं लेकिन विपत्ति आज पूरी तैयारियों के साथ हम दोनों के गले पड़ चुकी थी। लगभग 1 घंटे बाद 25-30 किलोमीटर मीटर की दूरी तय करते-करते यह मोटरसाइकिल भी धोखा दे गई और एक पेट्रोल पंप पर जाते-जाते बारून हाईवे पर पूरी तरह सीज हो गई। अब हम अपनी दशा क्या बताएं , मेरे शरीर में काटो तो खून नहीं, सांसें थम गई ,हताश, निराश पेट्रोल पंप पर हाथ पर हाथ धरे खड़ा हो गया। 9:30 बज चुका था परीक्षा प्रारंभ होने में केवल आधा घंटा शेष घंटा रह गया था। एक मित्र का फोन भी आ रहा था कि कहां हैं जल्दी पहुंचिए परीक्षा हॉल में हमलोग बैठ ग‌ए हैं ।हमारी व्यग्रताऔर बढ़ गई सोचने लगा आज कैसा दिन है ? पता नहीं घर लौटते-लौटते तक क्या होनी लिखी है? खैर, आकाश को अनंत विश्वास के साथ एक बार देखा और फिर ईश्वर की शरण में आज की समस्या को समर्पित कर दिया और कहा कि प्रभु आज का दिन तुम्हारे ऊपर ही है। चाहे आप जैसे बेंड़ा पार करें।


पेट्रोल पंप पर हमारे मित्र उस मोटरसाइकिल को चालू करने में पसीना बहा रहे थे । थक गए लेकिन मोटरसाइकिल चालू नहीं हुई। संयोग ये रहा कि दोनों ही बार कहीं बीच रास्ते में मोटरसाइकिल खराब नहीं हुई। ईश्वर को याद करते मैं सोच ही रहा था कि कोई मोटरसाइकिल सवार मिल जाता तो विनती करके किसी तरह परीक्षा केंद्र तक पहुंच जाता। इतना सोचना था कि अचानक से एक मोटरसाइकिल सवार आता हुआ दिखाई दिया। हम दोनों ने हाथ दिया उस भले आदमी ने मोटरसाइकिल रोक दी। हमने अपनी सारी घटना बताई वह भला व्यक्ति हम दोनों की मजबूरी समझ गया और दोनों को लेकर चल पड़ा। ईश्वर को कोटी कोटी धन्यवाद प्रणाम करके हम उस भले आदमी के मोटरसाइकिल पर सवार ऐसे उड़ते जा रहे थे जैसे स्वयं भगवान हमें अपने कंधों पर बिठाकर परीक्षा केंद्र तक पहुंचाने जा रहे हैं। आज पूर्ण रूप से हमें ईश्वर के होने की अनुभूति हो रही थी।पूर्ण विश्वास हो गया कि ईश्वर है और वह हृदय से पुकारने वालों की मदद भी अवश्य करता है।


बेचारे उस व्यक्ति ने हम दोनों को परीक्षा केंद्र तक पहुंचा दिया 10:30 बज चुके थे सभी परीक्षार्थी परीक्षा केंद्र पर प्रश्न पत्र और उत्तर पत्र लेकर लिखने बैठ चुके थे। हम दोनों भी पहुंचे और क्लास के शिक्षकों से अपनी आपबीती सुनाई उनकी भी सहानुभूति मिली और ईश्वर की कृपा से हमारी परीक्षा छुटने से बच गई।


आज की होनी इतना ही नहीं थी संध्या घर लौटते समय हम दोनों मित्रों के साथ दुर्घटना भी हो गई । मामूली चोटें आई और रात 8:00 बजते-बजते घर पहुंचा।


घर की ड्योढ़ी में कागज की तस्वीर पर विराजमान हमने अपने इष्ट देव भोलेनाथ को प्रणाम किया। और मां को आज के दिन का सारा हाल सुनाया। मां दंग रह गई। एक बार फिर मुझे पूर्ण अनुभूति हो चुकी थी कि कहीं ना कहीं ईश्वर है।


रचनाकार-धर्मेन्द्र कुमार शर्मा

Thursday, May 28, 2020

'स्वीकार'



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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' स्वीकार '


कुछ सोचो,तुम चिंतन एक बार करो,
क्या मिलेगा यदि चिंता सौ बार करो
जो वश में नहीं,उस पर बहस बेकार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

कुछ है कुछ नहीं भी,
जितना मिला उतना ही सही।
व्यर्थ कुछ और मिलने का इंतजार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

किसी को धन मिला,
किसी को मन मिला।
जो मिला उसी को बरकरार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

गुमान उन्हें अमीरी का,
आन तुम्हें फकीरी का।
जो है उसी पर श्रृंगार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

लकीर मत देख अपने हाथ का,
जरूर मिलेगा तुम्हारे भाग्य का।
वक्त का थोड़ा इंतजार करना होगा।
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

खुश रह ना तनिक अफसोस कर,
संभाल खुद को जरा संतोष कर।
व्यर्थ अभिलाषा हजार करना होगा
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

लूटे पांडवों का सब लौट गया,
देखा अभिमान कौरवों का टूट गया।
हक की हकीकत से ही सरोकार रखना होगा,
 जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।

सर्वदा सवार रह कर्म पथ पर,
चल उठ आज एक शपथ कर।
पाना है तो प्रयत्न हर बार करना होगा,
जो जीवन मिला विधाता से उसे स्वीकार करना होगा।


'शर्मा धर्मेंद्र'

Saturday, May 23, 2020

'डर'


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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' डर '                 

कांटो से है डर कहां?
डर तो है गुलाब से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां दिल टूटने का?
डर तो है ख्वाब से,
देखना!
हिसाब से।

झूठ से है डर कहां?
डर तो है इंसाफ से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां बदनामी से?
डर है उसके दाग से,
देखना!
हिसाब से।

खंजर चुभे ये डर कहां?
डर चुभने वाली बात से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां हानि से खुद के?
डर है उनके लाभ से,
देखना!
हिसाब से।

खोने से है डर कहां?
डर है उसकी याद से,
देखना!
हिसाब से।

डर कहां है गैरों से?
डर है अपने आप से,
देखना!
हिसाब से।

                           
'शर्मा धर्मेंद्र'।           

Thursday, May 21, 2020

'मैं'


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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' मैं '                 


पीपल,बरगद की छांव सा- मैं,
गहरी दरिया में नाव-सा मैं।
कभी पतझड़,बसंत कभी बरसात रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

बात का पक्का हूं,
इंसान सच्चा हूं।
खड़ा हर वक्त सच के साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

जिस्म महकता मेरा इमानदारी से,
रिश्ता सबसे मेरा,दुराचारी से, सदाचारी  से।
गले लगाकर शत्रुओं के भी साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

 जीवन जैसा भी है मेरा,
संतोष ही महाधन है मेरा।
घोर दरिद्रता,अभाव में भी न उदास रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

बड़ी हैसियत से क्या लेना-देना,
खालूं, खिला दूं प्रभु बस इतना दे देना।
मुस्कुराता अपनी झोपड़ी के पास रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

श्रेष्ठ बन जाने की तमन्ना नहीं,
बिसात भूलकर जीवन हमें जीना नहीं।
आसमां बनकर भी ज़मीं के साथ रहूंगा,
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।

हाथों मेरे ना कोई बुराई हो,
 कुछ हो अगर तो किसी की भलाई हो।
यथाशक्ति दान धर्म पूण्य की चाह रखूंगा
मैं खास था,खास हूं,और खास रहूंगा ।


                                       'शर्मा धर्मेंद्र'

Sunday, May 17, 2020

'कोरोना'


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पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- 'कोरोना'

(मगही आंचलिक हास्य कविता)

इस कविता का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं बल्कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के प्रति लोगों को जागरुक करना,सचेत करना,एवं उनका मनोरंजन करना है।

नाया मेहमान हे,
बाड़ा बदनाम हे।
डरे एकरा सब कोई घर में लुकाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

दुनिया लाचार हे,
मचल हाहाकार हे।
सुपर पावर देश भी ठेहुना प आएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

बढ‌ई हाली-हाली हे,
रोग बलशाली हे।
धर‌ई थे ‌‌इ कस के जे तनिको छुआएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

लाक-डान  बढ़‌ई थे,
कछुआ नियन चल‌ई थे।
सालो भ टूटत ना अ‌इसन बुझाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

हटे से घट जाएत,
सटे से बढ़ जाएत।
सटही से स‌उसे जहान छितराएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

 गांव ना शहर गेल,
जे जाहां हल ठहर गेल।
निकलल जे घर से उ कुकुर नियन खदेराएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

बर-बजार बंद हे,
 मिल‌इत शकरकंद हे।
निमके आउ भात प संतोख बन्हाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

बड़े-बड़े बाबू साहेब,
अपना के लाट साहेब।
लाक-डाउन तोड़े वाला सोंटा से सोंटाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल सहे।

चानी को‌ई कट‌ई थे,
चानी कोई बंट‌ई थे।
धरमी-अधरमी अबे चिन्हाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

सडुआना ना ससुरारी के,
नेवता ना हकारी के।
तिलक,बरात,च‌उठारी सब भुलाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

परकीरती के खेल हे,
सिस्टम सब फेल हे
विज्ञान,वेद,गीता,कुरान सब रखाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल से।

 सामाजिक दूरी बढ़‌ई थे ,
मास्क मुंह प चढ़‌ई थे।
साबुन,सेनेटाइजर खूब हाथ प मलाएल हे,
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

धीर तनी धरल जाव,
घरवे में रहल जाव।
संकट‌ इ संयम से रहे वाला आयल हे।
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।

धन्यवाद हम कर‌ई थी,
गोड़‌ उनका लग‌ई थी।
कोरोना के जोधा जे सेवा में अझुराएल हे
का कहूं जब से कोरोना इ आएल हे।







Thursday, May 14, 2020

'पढ़ेगा कौन..?'

🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
Our blog 
साहित्य सिंधु की कलम से.....


पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक-पढे़गा कौन..?


स्याही खत्म हुई मेरे कलम की,
अब भरेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

लोग सब हैं समय के अभाव में,
बेचैन,व्यस्त सब जी रहे तनाव में।
   विश्राम शब्दों की छांव में करेगा कौन?

 लिख तो हा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

आओ एक नई बात बताऊंगा,
मैं तुम्हें जिंदगी के पाठ पढ़ाऊंगा।
मेरी पुस्तक का पाठक बनेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

तुम सोचते हो मैं ही दुखी हूं,
पढ़ कर देख मैं भी दुखी हूं।
विपत्तियों के साथ भी खड़ा रहेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

मैं लिखता रहूं और कोई ना पढे़,
फिर लेखन की गाड़ी आगे कैसे बढ़े?
मेरे विचारों की सवारी करेगा कौन?
लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

पन्ने उलट-पुलट के रह जाते हो,
अब कौन पढ़ें,ये सोच के रह जाते हो।
अनंत ज्ञान की हिफाजत करेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं
 मगर पढ़ेगा कौन..?

विष को अमृत कर दूं,
मृत को जीवित कर दूं।
मेरे भावों का रसपान करेगा कौन?
   लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

इंसान,इंसान बने कैसे?
मानव महान बने कैसे?
मेरी अभिव्यक्ति को व्यक्ति समझेगा कोन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?

उत्तम चरित्र, व्यक्तित्व हो जाए,
जीवन सबका साहित्य हो जाए।
पवित्र पथ पर पांव आखिर धरेगा कौन?
 लिख तो रहा हूं मैं,
 मगर पढ़ेगा कौन..?
'शर्मा धर्मेंद्र'
                                                  

Wednesday, May 13, 2020

'देश'


🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
Our blog 
साहित्य सिंधु की कलम से.....


पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक-'देश!'

घाव इसने दिया या उसने,
आखिर दिल दुखाया तेरा किसने?
नाराज क्यों हो,बताओ तो हमें?
देश ! 
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें?


चीख-पुकार आह निकल रही है।
हिंसा की चिंगारी कहां सुलग रही है?
ज्वाला भड़का कौन जला रहा है तुम्हें?
देश ! 
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?


हथियार से वार किसने किया?
खुद को तुझ पर वार किसने दिया?
छीन गया,क्या मिल गया तुम्हें?
देश ! 
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?


सब कुछ किसके पक्ष में है?
बता कौन तेरे विपक्ष में है?
विवश कर वश में किसने किया तुम्हें?
देश ! 
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?


अस्मिता को चिता में कौन जला रहा है?
अपराधों का बवंडर कौन उठा रहा है?
जघन्य मंशा लिए कौन घूर रहा है तुम्हें?
देश ! 
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?


प्रीत की रीत चलाने वाले श्याम कहां गए?
मर्यादा पुरुषोत्तम वो श्रीराम कहां गए?
कंस-रावण बन,कौन सता रहा है तुम्हें?
देश ! 
क्या हो गया है तुम्हें,
कि कुछ हो रहा है हमें ?

                                            'शर्मा धर्मेंद्र'

Sunday, May 10, 2020

कोरोना गीत


🌺साहित्य सिंधु 🌺
  हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
Our blog 
साहित्य सिंधु की कलम से.....


प्रिय बंधु जन,
प्राणघातक वैश्विक महामारी 'कोरोना' के प्रकोप से आज दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही है। एक गीत के माध्यम से हम संदेश देना चाहते हैं कि सोशल डिस्टेंस बनाएं, सतर्क रहें, सुरक्षित रहें क्योंकि 
"जान है,तो जहान है "


धन्यवाद!



(भोजपुरी गीत)


 जाने   कवन  , दुश्मन   मुद‌ईया  2
   ल‌ईलस अईसन ,विपत्ति बल‌ईया  2
                   दुनिया  के  रोवे  कोना - कोना हो ....2  जा-जा तू जा ए कोरोना हो.....2
                      

  1

                            
   कवन    अधरमी   , अधरम    कऽ   दिहऽलस,
 केकरऽ  कुपुतवा , कुकऽरम कऽ दिहऽलस,
विधि   के   विधान  , भईल   पानी  -  पानी,
 अधऽमी  उ  कवन , अनरऽथ कऽ दिहऽलस।
                  करऽम बा केकऽर , के  फल  भोगे,
                   सांस जिनीगिया के, टूटे रोजे -रोजे।
बंद नईखे होवत रोना-धोना हो..2
     जा-जा तू जा ए कोरोनावायरस हो..2
              
   2
              

  छुआ -छूत  के  बा , ई  महामारी,
दिन  पर  दिन  इ , गोड़ पसारी,
      स्वच्छ रहीं निज ,गृह से ना निकलीं,
जिनगी रही,सह लीं ई लाचारी।
                      सुनऽ ए सजन एगो ,कहावत पुरान बा,
                      बच  के  रहऽ  जान , बा तऽ जहान बा,
होनी -हानी  द‌ईबो जाने ना हो...2
      जा -जा तू जा ए कोरोनावायरस हो..2

जा -जा तू जा जा!
जा -जा तू जा जा!
             जा-जा तू जा ए कोरोना.....
                  

                                                                                                                                  'शर्मा धर्मेंद्र '                                         


Sunday, April 12, 2020

हिंदी शायरी आकृति

साहित्य सिंधु
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति
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पद्य रचना
हिंदी शायरी (कविता)
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