Tuesday, December 31, 2019

'नया साल'


🌺🌺 साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति


पद्य रचना
विधा- कविता
शीर्षक- नया साल

साहित्य सिंधु की ओर से नववर्ष की अनंत शुभकामनाएं!

 मंगल कामना और न‌ए साल का आगाज करते हुए साहित्य सिंधु की ओर से  समर्पित है एक न‌ई रचना  जिसका शीर्षक है-
🌹
🌹'नया साल'🌹
🌹

कर ना कोई खेद तू,
नवीन लक्ष्य भेद तू।
फिर से एक वक्त बेमिसाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

भूत को बिसार दो,
भविष्य को संवार लो।
करने को नया-नया कमाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

मेरा हाल ऐसा है,
तेरा हाल कैसा है?
लेने-देने हर किसी का हाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

स्वस्थ शीतकाल में,
अबकी नए साल में।
लय से लय मिलाओ नया ताल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

 तृष्णा ढो रहा कोई,
तृप्त हो रहा कोई।
मालामाल करने या कंगाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

उलझ रहा कोई कहीं,
सुलझ रहा कोई कहीं।
बनके कुछ उत्तर कुछ सवाल आ गया
चलो फिर से बंधु  एक नया साल ।

वैध कोई हो रहा,
कैद कोई हो रहा।
मुक्ति बन रहा किसी का जाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया।

दुख भोगता कोई,
सुख भोगता कोई।
जश्न किसी के लिए जवाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

क्षोभ है ध्यान है,
आगमन-प्रस्थान है।
जन्म बन रहा किसी का काल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

हर्ष कर विषाद कर,
न कल हुआ वो आज कर।
मचाने धूम-धाम से धमाल आ गया,
चलो फिर से बंधु  एक नया साल आ गया ।

                             ‌‌‌        'शर्मा धर्मेंद्र'



Sunday, December 15, 2019

'क्या-क्या है?'


🌺🌺साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य,हम हमा संस्कृति




पद्य रचना
विधा- कविता
शीर्षक- ' क्या-क्या है? '


दुनिया में तो क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

1

काम है,
क्रोध है,
लोभ है,
मोह है।
और सुन क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

2

सच है,
झूठ है,
तृप्ति है,
भूख है।
और पूछ क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

3

दोस्ती है,
दुश्मनी है,
बनी है,
ठनी है।
सुनता जा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

4

समर्थन है,
बहिष्कार है,
दंड है,
पुरस्कार है।
अनुमान लगा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

5

हर्ष है,
विषाद है,
विरोध है,
विवाद है।
और सुनेगा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

6

नीति है,
अनीति है,
एकता है,
कूटनीति है।
क्या खबर तुझको क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

7

शाम है,
दाम है,
दंड है,
भेद है।
और बताएं क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

8

जन्म है,
मृत्यु है,
बंधन है,
मुक्ति है।
ज्ञात हुआ क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

9

सवाल है,
जवाब है,
हकीकत है,
ख्वाब है।
सोच जरा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

10

ज्ञान है,
अज्ञान है,
अभिमान है,
स्वाभिमान है,
देख इधर क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

11

अंधेरा है,
  उजाला है,
दान है,
घोटाला है।
चुन ले जरा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

12

दौलत है,
सोहरत है, 
कुर्बानी है,
शहादत है।
देख-देख क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

13

विष है,
अमृत है,
शहद है,
घृत है।
गौर कर क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

14

योग है, 
वियोग है,
दुर्भाग्य है,
संयोग है।
और सुनेगा क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

15

प्रेम है, 
घृणा है,
तृप्ति है,
तृष्णा है।
कैसे समझाएं क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

16

आसक्ति है,
विरक्ति है,
निर्बलता है,
शक्ति है।
सबको बता क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

17

हिंसा है,
अहिंसा है,
तमाशा है,
चिंता है।
और बताएं क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

18

धर्म है,
अधर्म है,
कर्म है,
विकर्म है।
न जाने और क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

19

स्वर्ग है,
नर्क है,
 समान है,
फर्क है।
मैं भी नहीं जानता क्या-क्या है
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

20

पाप है,
पुण्य हैं,
अनंत है,
शून्य है।
मत पूछ और अभी क्या-क्या है?
पर ढूंढ, तुम्हारे लिए क्या-क्या है?

                        'शर्मा धर्मेंद्र '

Friday, December 13, 2019

'मुझे ज़िंदा कर दो'


🌺🌺साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति


पद्य रचना
विधा - कविता
शीर्षक - 'मुझे जिंदा कर दो'

हे! प्रियतम।
है कौन-सा बंधन,
आते नहीं तुम।
अब तो आओ
क्षीण हो रही
प्राणवायु मेरी।
मुझ में अपना
स्वांस भर दो,
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।

व्याकुल व्याकुल-सा है मन,
प्रेम-विरह प्रताड़ित तन।
तुम अटल आस्था मेरा,
मुझे जीर्ण-शीर्ण, मरणासन्न
काल ने घेरा।
संजीवनी बन निज कर के
मुझको मृदु छुअन से
फिर स्वस्थ कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।


अतृप्त न केवल हम,
अतृप्त भी हो तुम।
विधान यह विधि का,
या है इंसान का।
तुम मेरी,मैं तृष्णा तेरी।
बन बादल प्यासी धरती को
शीतल-शीतल कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।

अनावृष्टि हो, अकाल हो,
जल की एक बूंद तो
अत्यल्प है,अतिलघु,शून्य हैं।
किंतु तृष्णा की तृप्ति
वही एक पहली बूंद है।
आज उस बूंद को
अमृत कर दो।
स्पर्श कर दो,
छू कर मुझे जिंदा कर दो।


                                              शर्मा धर्मेंद्र  






Tuesday, December 10, 2019

'अरमान लाया हूं'


🌺🌺 साहित्य सिंधु🌺🌺
 (हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति)



पद्य रचना
विधा - शायरी ( कविता )
प्रकार - तरन्नुम (मधुर गीत)
शीर्षक- लाया हूं

वर्षों से दबा दिल का,अरमान लाया हूं,
 पहचान बने मेरा अपनी पहचान लाया हूं।

कोई सोना-चांदी या हीरा तुझ पर लुटा ए तो,
तुझ पर मैं लुटाने को,अपना जी जान लाया हूं।

जीवन के झमेले से तो हर कोई हार जाता है,
जो जीत गए उनके लिए इनाम लाया हूं।

कोई भाव से मीठा तो कोई प्रभाव से मीठा है,
जो सबसे मीठा है ऐसी जुबान लाया हूं।

वही कद्र करेगा जो खुद अपना कद्र समझता है,
सम्मान बढे़ सबका मैं खुद सम्मान से आया हूं।

है दफन बहुत दिन से एक जलजला दिल में,
जरा संभल के रहना तुम मैं एक तूफान लाया हूं।

वर्षों से दबा दिल का अरमान लाया हूं,
पहचान बने मेरा अपनी पहचान लाया हूं।

                                         ' धर्मेंद्र कुमार शर्मा '

Friday, November 29, 2019

'बम फटाका सीताराम'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति


बम फटाका सीताराम




बम फटाका सीताराम
बम फटाका सीताराम

पद्य रचना


विधा - कविता

शीर्षक - बम फटाका सीताराम

विशेष आभार व्यक्त करता हूं, मैं अपने परम मित्र श्री अनिल कुमार पाठक जी का जिन्होंने हमारी कविता के भाव के समानांतर अपनी छवि को पाठकों तक पहुंचाने हेतु हमें सहर्ष स्वीकृति प्रदान की।

आशा और विश्वास करता हूं कि पूर्ण रूप से जीवन प्रासंगिक इस मगही हास्य कविता में पाठक अपने आप को  कविता के केंद्र में ढूंढ पाएंगे और यह महसूस कर पाएंगे कि हम  जो जीवन जीते हैं उसके लिए इस कविता की प्रत्येक पंक्तियां कितनी प्रासंगिक है।


🌺 मगही आंचलिक हास्य कविता 🌺
('बम फटाका सीताराम')

1

गांवे-गांवे घूर के,
आएल ही दूर से।
छोट-बड़ सभनी के,
कर‌ई थी परनाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

2

ठीके सामाचार हे,
कुछ कहे के बिचार हे।
 मुंहवां प तनिको ना,
लग‌ई थे लगाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

3

दुनिया में आके,
जनम ‌‌इ पाके।
लगल कि बन गेल,
अब सब काम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

4

जनम तो भरम हल,
लिखल कुछ करम हल।
अ‌इली तो जनली,
कि केतना हे काम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

5

लईका‌ई तो ठीके  से,
बीत गेल नीके से।
खेले आऊ खाए से,
हलक बस काम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


6

चढ़ल जवानी जब,
बढ़ल नदानी तब।
सांझ होवे जहंई,
तह‌ंई बिहान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


7

जहिया सेयान भेली,
छौफुटिया जवान भेली।
अगुवा बराहिल जूटे,
लगलन तमाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

8


अगुआ के भीड़ जुटे,
मनवा में लड्डू फूटे।
एगो के पांच बेरी,
कर‌अ हली सलाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

9


जहिया बियाह भेल,
खूब बाह-बाह भेल।
गते-गते आफत में,
परल परान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


10

नकीया नथा गेल,
ढोलक बनहा गेल।
नेटिया में बजे लगल,
रोज ढम-ढाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


11

घरवा तो बस गेल,
भार-बोझा बढ़ ‌‌‌‌ गेल।
बाल-बाचा घर के अब,
रह‌ई थे ध्यान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

12

जिनगी चलावे ला,
प‌ईसा कमाए ला।
घरवा में होवे लगल,
रोज कोहराम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


13

जब तक जवान हली,
आन्ही-तूफान हली।
झिस-लपट कुछ दिन,
चला देलक काम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

14


संतोषी हम भेली ना,
लेली से देली ना,
कने से लूट लेउं,
इहे हलक धेयान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

15

झिस-लपट बेस लगल,
एक दिना ठेंस लगल।
नानी मरो अब से,
कि करब अईसन काम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


16

पसेना बह‌ईली जब,
देह-तोड़ कम‌ईली जब।
उड़ गेल रूहत देखूं ,
सुख गेल चाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


17

घरवा परिवार ला,
सुखी संसार ला।
दमड़ी ला चमड़ी,
हम क‌ईली निलाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


18

समाज के बात हे,
काहां औकात हे।
प्रतीष्ठा में ज़िन्दगी भर, 
देली परान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

19


क‌ईसहूं निबह गेल,
हाथ खाली रह गेल।
देहिया पर चमड़ी,
ना हथवा में दाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


20

केतनो कमा लेब,
एहिजे गंवा देब।
ई दुनिया-दारी,
सार हेया हराम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

21


जवानी में छुट के,
घीऊ पीली सूत के।
बाड़ा बुढ‌ऊती इ,
कर‌ई थे परेशान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

22

जीते हम तरह जाऊं,
लग‌ई थे कि मर जाऊं।
अटकल हे नेटिये प,
आके परान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


23

जिनगी के धत् तेरी के,
हेरा-फेरी मार तोरी के।
राम भाई हांड़ी,
चूल्हा भाई सलाम।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

24

चैन से जी लेउं,
राम- रस पी लेउं।
मुंअब तो धन ना,
जाएत शमशान।
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।

25

कह देली खोल के,
जाई थी बोल के।
राम नाम सत्य हे,
जपूं सुबह-शाम। 
बाबू हमर नाम हे,
बम फटाका सीताराम।


                                  शर्मा धर्मेंद्र


पाठकों से अनुरोध है कि कोई त्रुटि एवं व्यक्तिगत आपत्ति हो तो हमें अवश्य सूचित करें
धन्यवाद!








Monday, November 25, 2019

'कौन हो तुम'


🌺🌺 साहित्य सिंधु🌺🌺
हमारा साहित्य,हमारी संस्कृति


पद्य रचना
विधा-कविता
शीर्षक- ' कौन हो तुम '

दिन-रात जी तोड़ कमाता हूं
बच नहीं पाता बहुत बचाता हूं
कुंडली कंगाल कर डाला तूने 
मुझे दिखाना नीचा छोड़ दो
तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

ना मेरी पत्नी ना प्रेमिका हो
हद है मगर तुम चीज अजूबा हो
 ये कैसा रिश्ता है
 मुझसे ये रिश्ता तोड़ दो
तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

पूछ लो पूछना है जिनसे
तंग हो ग‌ई ज़िन्दगी तुमसे
ना प्यार न मोहब्बत न इश्क
प्यार जताने का ये तरीका छोड़ दो
तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

 ना रोटी ना कपड़ा ना मकान
अभाव मुक्त न हो सका ये इंसान
वीरान कर चुकी हो अब
मेरा बगीचा छोड़ दो
 तुम जो भी हो
मेरा पीछा छोड़ दो

                                 'शर्मा धर्मेंद्र'

Sunday, November 24, 2019

'राजगीर की यात्रा'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति
' राजगीर की यात्रा'

25 दिसंबर 2018
गद्य रचना
विधा-यात्रा वृतांत
शीर्षक-पांच पड़ाव

जब कभी हम अपने अस्त-व्यस्त,उबाऊ और तनावपूर्ण दिनचर्या के बीच कहीं सैर-सपाटे पिकनिक या यात्रा की बात छेड़ते हैं तो, अचानक ही तन-मन में एक नई स्फूर्ति एवं रोमांच का अनुभव होने लगता है। मानो जैसे जेल से रिहाई की खबर सुन चुका कोई कैदी।ऐसा होगा, वैसा होगा, यह करेंगे, वह करेंगे, ऐसे घूमेंगे, वैसे घूमेंगे, खूब  मस्ती  और  मजा  आएगा आदि नाना प्रकार की रंग-बिरंगी चित्र रेखा खींचते हुए हमारे मन का पंछी कल्पनाओं के पंख फड़फड़ाते हुए इतनी दूर यात्रा पर निकल जाता है कि क्षण भर के लिए हम स्वयं को जैसे भूल ही जाते हैं। यदि यात्रा की तिथि निर्धारित हो गई हो तो मत पूछिए-सफर के प्रारंभ होते-होते तक मेले के इंतजार में अंगुलियों पर एक-एक दिन गिनते अधीर बच्चों की तरह मन में लेश मात्र भी धैर्य नाम की कोई चीज रह ही नहीं जाती और आखिर वह दिन आ ही जाता है जब हम मन में कुलबुलाती मीठी कल्पना को संजोए एक सुखद अनुभव के साथ यात्रा पर निकल पड़ते हैं।
               
            लगभग एक महीना पूर्व ही विद्यालय प्रबंधन की ओर से शैक्षिक-परिभ्रमण की तारीख 29-12-2018 को बेतला राष्ट्रीय उद्यान के लिए निश्चित की गई थी जो झारखंड राज्य के लातेहार और पलामू जिले के जंगलों में लगभग 1026 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। ब्याघर्आरक्षित इस वन में बाघ, हाथी, तेंदुआ, गौर,सांभर,चितल आदि वन्य जीव इसके आकर्षण का मुख्य केंद्र हैं । खैर...................
अधिक ठंड बढ़ जाने के कारण शैक्षिक परिभ्रमण में फेर-बदल करके विद्यालय प्रबंधन द्वारा राजगीर  जाने का निर्णय लिया गया।
             
           24 दिसंबर 2018 की सुबह जब हमारी आंखें खुली तो एक नई ऊर्जा, एक नई स्फूर्ति एवं उमंग की अनुभूति हो रही थी। तन मन पुलकित हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वर्षों से बंद किसी पंछी को हमेशा के लिए आजादी मिलने वाली है मैं तो यही सोच रहा था की जब मैं इतना अधीर हो रहा हूं तो विद्यालय के बच्चों की व्याकुलता कितनी होगी।
               
               रोज की तरह बिस्तर से उठा, नित्य क्रिया से निवृत हुआ, दातुन की, स्नान किया, माथे पर तिलक लगाया और शुभ दिन शुभ यात्रा की कामना करते हुए अपने इष्ट देव भगवान शंकर की प्रतिमा के समक्ष अपना सिर झुकाया। फटाफट कुछ जलपान करके विद्यालय का रूख किया।
               
                  रोज की तुलना में अपने दोपहिया वाहन को आज मैंने कुछ तेज ही दौड़ाया और 8 बजे विद्यालय पहुंचा। हर दिन विद्यालय के प्रवेश द्वार पर अरविंद सर मिलते, आज भी मिले, गुड मॉर्निंग कहा और मैं विद्यालय में प्रवेश कर गया। और दिनों की तुलना में आज कुछ विशेष चहल-पहल थी विद्यालय में। लेकिन ये क्या कुछ पल के लिए हमारा ध्यान अरविंद सर के चेहरे पर वापस चला गया। मुझे ध्यान आया कि उनके मुख मंडल पर खेद और हर्ष के मिश्रित भाव थे। खेद शायद इसलिए कि कुबेर महाराज के खजाने में आज सेंध लगने वाली है और हर्ष इसलिए कि इस यात्रा के बहाने उन्हें भी घूमने का मौका मिलेगा। पर हमें इन बातों से क्या लेना-देना हमें यात्रा पर जाना है तो जाना है। पर मन में एक डर भी था अभी कुछ नहीं कहा जा सकता भाई बेतला राष्ट्रीय उद्यान  की यात्रा कटी तो राजगीर की तरफ मुड़ी ,हो सकता है राजगीर की यात्रा शाम तक  मध्यम होते सूरज की रोशनी की तरह अंधकार में विलीन हो जाए।

                 आगे बढ़ा,विद्यालय के निर्देशक महोदय मिले उन्हें भी गुड मॉर्निंग कहकर आगे बढ़ा । आज उनके चेहरे पर उत्तरदायित्व की भावना प्रबल थी क्योंकि यात्रा के लिए चयनित 60 छात्र-छात्राएं और लगभग 25 शिक्षक शिक्षिकाओं व अन्य सहयोगीयों के साथ सुरक्षित शैक्षिक परिभ्रमण करना और वापस लौटना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी।

                विद्यालय के छात्रों,सहयोगी शिक्षक शिक्षिकाओं और सेविकाओं से सुबह का नमस्कार करते हुए स्टाफ रूम तक पहुंचा। बाहर निकला तो मैंने पाया कि विद्यालय के संपूर्ण प्रांगण में  आज यात्रा की लहर दौड़ रही है नजारा ही कुछ और था। शिक्षक एवं बच्चों में झुंड के झुंड यात्रा  की निजी नीतियां और तैयारियां हो रही थीं। मैं भी शिक्षक के एक झुंड में दखल देते हुए घुसा और विलीन हो गया।
                 
                 विद्यालय द्वारा सूचना दी गई कि विद्यालय आज भी निश्चित समय तक चलेगी शिक्षक और छात्र अपने-अपने घर जाकर पुनः संध्या 4:00 बजे विद्यालय में उपस्थित होंगे और यात्रा संध्या 5:00 बजे प्रारंभ होगी


                समयानुसार विद्यालय की छुट्टी हुई ।
छात्र व शिक्षक घर जाकर यात्रा के साजो- सामान के साथ वापस 4:00 बजे विद्यालय में उपस्थित हो गए ।  सभी के हाथों और कंधों पर छोटे-बड़े बैग थे। जाड़े का मौसम था।  सब ने बैग में जरूरी सामान बांध रखा था।  छात्र-छात्राओं को पहचानना मुश्किल हो रहा था क्योंकि हम उन्हें रोज यूनिफॉर्म में देखते मगर आज पूरी आजादी थी सबने अपने-अपने पसंद के रंग-बिरंगे नए कपड़े पहन रखे थे। विद्यालय के बरामदे से पूड़ी सब्जी की स्वादिष्ट खुशबू आ रही थी। पूड़ी और सब्जी हम सभी के रात का भोजन था। जो विद्यालय में ही तैयार करवाया जा रहा था। धीरे धीरे अस्ताचलगामी सूरज की रोशनी  धीमी हुई  और  यात्रा की तैयारियां पूरी

          दिन सोमवार 24 दिसंबर 2019 था। यात्रा वाहन में थीं, विद्यालय की चार छोटी गाड़ियां और एक बस । इनके सभी चालकों ने आज बड़ी फुर्सत में सभी गाड़ियों को  को धो पोंछकर चमकाया था और स्वयं भी ऐसे तैयार हुए जैसे किसी की बारात। प्रधानाचार्य और निदेशक महोदय के आदेशानुसार छात्र-छात्राओं  व सभी शिक्षक शिक्षिकाओं को यथावत स्थान मिला और कुछ न कुछ जिम्मेदारियां भी ।   Dreamland Public School का यह पहला शैक्षिक परिभ्रमण था ।संध्या 5 बज कर 36 मिनट पर विद्यालय के सभी छोटी-बड़ी पांच 5 गाड़ियां एक-एक करके राजगीर के लिए रवाना हो गई। मैं जिस छोटी गाड़ी में बैठा उसमें हमसफर बने हमारे सहयोगी शिक्षक राघवेंद्र सर । अच्छा लगा क्योंकि समानांतर सोच वालों के बीच जमती भी अच्छी है और टिकती भी अच्छी है । हमारे साथ थे वाहन चालक लवलेश कुमार और कुछ छात्र। हमारे विद्यालय से लगभग 15 सौ मीटर की दूरी मां देवी का मंदिर आया शुभ यात्रा की कामना की और 1 दिन के लिए विद्यालय के उलझन से  दूर हमने चैन की सांस ली।

                  गुनगुनाते ,इधर-उधर यहां-वहां की बातें करते हुए हमारा पहला पड़ाव आया दिल्ली से कोलकाता जाने वाली नेशनल हाईवे के पास बबलू होटल जो हमारे विद्यालय से 25 से 30 किलोमीटर उत्तर में था। 6:30 में हमारी गाड़ी रुकी, हमारे पीछे की सभी गाड़ियां एक साथ हो गई और हम सभी गाड़ियों के साथ पुन:6:40 बजे प्रस्थान कर ग‌ए।
                
                    हम थे राष्ट्रीय राजमार्ग nh2 पर प्रतिस्पर्धा स्वरूप सभी गाड़ियां फर्राटा भरती दौड़ी जा रही थीं।

                                आगे के लिए इंतजार करें!     

Thursday, November 14, 2019

'कोयल'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति



    बाल कविता
    शीर्षक- 'कोयल'

कभी-कभी क्यों आती कोयल,
सबके मन को भाती कोयल।
डाल-डाल पर फुदक-फुदक कर,
मीठे सुर में गाती कोयल।

रोज सवेरे आती हो तुम,
मीठे गीत सुनाती हो तुम।
मीठे-मीठे गीत सुना कर,
सबका मन हर्षाती कोयल।

कभी तो मेरे आंगन आओ,
मुन्ना-मुन्नी को बहलाओ।
दौड़ लगाते तेरे पीछे,
इतना क्यों सताती कोयल।

मृदुल कंठ कहां से पाया,
जो सारे जग को है भाया।
आमों के मौसम में आकर,
फिर कहां उड़ जाती कोयल।
              
                                  ' शर्मा धर्मेंद्र '


Thursday, November 07, 2019

'मैं हूं गंगा'


🌺🌺 साहित्य सिंधु 🌺🌺
हमारा साहित्य हमारी संस्कृति


 पद्य रचना:

 शीर्षक-'मैं हूं गंगा'

पहले जो बहती थी मैं'
अमृत की बूंद थी मैं।
पावन थी मेरी धारा'
भागीरथ ने था उतारा।
आज हाल उसका लेश भी,
मलाल ना रखूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।
   
स्वर्ग लोक छोड़ आई,
शिव की जटा में समाई।
निकली थी लघु धार में,
पितरों के मैं उद्धार में।
वरदान रूप आके,
अभिशाप ले चलूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

मेरे जल में तुम उतरकर,
पवित्र धारा से गुजरकर।
मन के पाप को धो करके,
धन्य जीवन को करके।
तट को छोड़ भी  जाओ,
मन की व्यथा ना कहूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

संस्कार पर्व वाहिनी,
मैं पाप सर्व नाशिनी।
श्रद्धा हूं आस्था हूं मैं,
मुक्ति का रास्ता हूं मैं। 
पथ मुक्ति का प्रकाशित,
सदियों तक मैं रखूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

देख दुर्दशा  हमारी,
वंचित न दुनिया सारी। 
अपशिष्ट मुझमें डालो,
या विष भी कर डालो।
जहर पीके भी तुम्हारा,
सदा मुक बनी रहूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।

संभव समय हो आगे,
जब भाग्य मेरा जागे।
कर जाए इतना निर्मल,
पहले थी जितना निर्मल।
उद्धार अपना वक्त के ही,
हाथों मैं करूंगी।
मैं हूं गंगा मैं बहूंगी, मैं हूं गंगा में बहूंगी।




                          'शर्मा धर्मेंद्र'


Monday, November 04, 2019

'मेरी मां'


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बाल कविता
शीर्षक-'मेरी मां'

भोली-भाली मेरी मां,
प्यारी-प्यारी मेरी मां
दूध-मलाई मुझको देती,
 जग में न्यारी मेरी मां।

कान पकड़कर मुझे सिखाती,
उठ बैठ भी कभी कराती
भले-बुरे का भेद बताकर,
ज्ञान दिलाती मेरी मां।
        
                      'शर्मा धर्मेंद्र ''

Thursday, October 31, 2019

'मानवता का दीप'


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पद्य रचना:

शीर्षक-'मानवता का दीप'

जब दीप जले मानवता का
सृष्टि जगमग हो जाएगी,
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।

हृदय में भरा जो दोष यहां
 वह दोष जहां मिट जाएगा,
हर भेद वहां खुल जाएगी
मानव निर्मल बन जाएगा।

खिले उद्यान अहिंसा का
जीवन की कली मुस्काएगी,
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।

मंदिर ना अलग ,मस्जिद ना अलग
ना गिरजाघर गुरुद्वारा हो,
जीने भी दें ,जी लें भी सभी
किसी का ना कोई हत्यारा हो।

जब परहित की मधुबन जो यहां
फल जाएगी फुल जाएगी, 
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।

मानवता का यह दीप चलो
 हम मिलकर साथ जलाएंगे,
होआंधी या तूफान कोई
इस लौ को सदा बचाएंगे

जीवन को बचाने जीवन जब
रक्षा संकल्प उठाएगी
कण कण में बसे परमात्मा की
तब रचना पूर्ण हो जाएगी।


                                                  'शर्मा धर्मेंद्र'

Monday, October 28, 2019

'सात समंदर पार'


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 पद्य रचना:

 शीर्षक-'सात समंदर पार'

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

ना धूल हटा मेरे पथ का,निशान बनाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

दौड़-धूप आनन-फानन,
बस जहां तहां हुआ।
मेरे सफ़र का अब तक,
श्री गणेश कहां हुआ।
गंतव्य हेतु मुझको,दृढ़ संकल्प उठाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

मैं सोचता हूं कुछ यहां,
पर हो जाता है कुछ।
जो ना सोचूं क्यों रोज-रोज,
होता रहता सब कुछ।
जो सोच लिया वो करके,दुनिया को दिखाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

आगे-आगे जो भी होगा, 
वो देखा जाएगा।
है ज्ञात हमें कि ,
एक बार में ना हो पाएगा
चुकता रहे निशाना, पर हर बार लगाना है,
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

बस एक बार जो चल पड़े, 
तो फिर कोई बात नहीं।
हमराही मेरा हो कोई,
या मेरे साथ नहीं।
मदद के हम मोहताज नहीं, सबको बतलाना है।
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।

जो विघ्न बाधा रोड़ा पथ में,
आएगा देखेंगे।
आए तूफां सैलाब रुख,
हम उसका मोड़ेंगे।
जिस ओर से सारे लौट चुके, उस ओर जाना है।
मेरे कदमों को सात समंदर पार जाना है।







Monday, October 21, 2019

* चौक


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पद्य रचना:

शीर्षक-'चौक'
*********************************
ये कितनी पीढ़ियां देख चुका,
एक पीढ़ी अब भी देख रहा
और कितनी पीढ़ियां देखेगा,
यह ज्ञात ना होने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

मैं सदा ही सत्य की राह चलूं,
गीता पर रखकर हाथ कहूं
महाभारत छिड़ता रोज यहां,
 षडयंत्र सब ने कर डाला है। 
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

जरा ठहरो मेरी बात सुनो,
निश्चित ना कोई हालात सुनो 
  कभी जोखिम तो कभी जश्न यहां,
  इस पथ से गुजरने वाला है।
 कई पीढ़ियों का रखवाला है,
 ये चौक बड़ा निराला है।

कभी खट्टी-मीठी बात चले,
शुभ दिन कभी काली रात रहे
सुख-दुख,तृप्ति कभी प्यास यहां,
महादान कभी घोटाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

 होरी, चैता हर ताल बजे,
हुलसे बसंत हर साल सजे
कभी प्रीत के गीत की गूंज उठे,
 कभी हिंसा होने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

हमने इसकी सच्चाई को,
अच्छाई और बुराई को
जो झेल गया कह दूं कैसे,
कुछ बात छुपाने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

किसका सफर कब तक है यहां,
रुक जाए कोई जाने कहां
हिसाब किताब बराबर तो,
ये सबका रखनेवाला है।
 कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।

क‌ई आए कितने चले गए,
कुछ बुरे भी थे कुछ भले गए
ये मंच वही पुराना बस,
किरदार बदलने वाला है।
कई पीढ़ियों का रखवाला है,
ये चौक बड़ा निराला है।
             

                    'शर्मा धर्मेंद्र'

Wednesday, October 16, 2019

* लेखक की आत्मानुभूति


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 गद्य रचना:

(लेखक की आत्मानुभूति)

शीर्षक-'जीवन'

******************************                          
जीवन पहले से ही तैयार की हुई एक पुस्तक है। जिसका हर एक पृष्ठ प्रतिदिन क्रमानुसार खुलता है और हमारे जीवन में एक नया अध्याय जुड़ता रहता है।
हां, वैकल्पिक तौर पर इस पुस्तक में जीवन रूपी कुछ खाली पृष्ठ भी संलग्न किए गए हैं जिनमें हम अपने कर्मों की लेखनी द्वारा नए अध्यायों को समाविष्ट करते हैं और अंततः हमें सुख या दुख का अधिकारी  बनना पड़ता है।

                                 ' धर्मेंद्र कुमार र्मा '
                                           

* लेखक संदेश


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मैं 
'शर्मा धर्मेंद्र'
हिंदी साहित्य लेखन व अध्ययन का 
एक छोटा प्रयास करने का अभिलाषी हूं। प्रबुद्ध रचनाकारों व पाठक जनों से यह अपेक्षा रखता
हूं कि आप सब हमारा मार्ग प्रशस्त करने में हमारा पूर्ण मार्गदर्शन करेंगे।

'शर्मा धर्मेंद्र

Tuesday, October 15, 2019

* साहित्य परिचय


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काव्य परिचय:

* सहित=स+हित=सहभाव अर्थात 
   हित का भाव होना ही साहित्य है।

* कुछ विद्वानों के अनुसार हित कारक 
   रचना का नाम ही साहित्य है।

साहित्य शब्द ,अर्थ और भावनाओं
   की वह त्रिवेणी है जो जनहित
   की धारा के साथ  उच्च
   आदर्शों की दिशा में
   प्रवाहित होती है।
   
* साहित्य का तात्पर्य अब कविता,
   कहानी उपन्यास,नाटक,आत्मकथा
   अर्थात गद्य और पद्य की सभी विधाओं
   से है।

काव्य परिचय:

                "शब्दार्थो सहीतौ काव्यम" अर्थात

 *   शब्द और अर्थ  का सहित 
      भाव ही  काव्य है।

               'वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्'

*    अर्थात रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।


                                               शर्मा धर्मेंद्र
स्रोत-पुस्तक 

Monday, October 14, 2019

* उसपार तू चल


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पद्य रचना:
शीर्षक-'उस पार तू चल'
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इस पार तो केवल डर ही डर
फैला है देख तू जिधर-उधर,
कुंवा है इधर, खाई है उधर
जाएगा बचके बोल किधर।
इस डर पर विजय जो पाना है
तो डूब सिंधु की धार में चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

चल लपक-झपक मनमानी कर
कुछ कपट कुपित नादानी कर,
साधु मन को अभिमानी कर
सूरज की आग को पानी कर।
कर शंखनाद दिग्गज डोले,
सिंहों-सा कर हुंकार तू चल।
राही रे उठ उस पार तू चल।

बारिश हो मूसलाधार यदि
नदियां उफने लगातार यदि,
हो बिजली की बौछार यदि
करे डगमग जो पतवार यदि।
कर बलि स्वयं की आगे बढ़,
मुड़ मत जीवन को वार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

सागर का नीर सुखा लो तुम
हाथों पर अचल उठा लो तुम
ब्रह्मांड को माप भी डालो तुम
अंतर में जुनूं जब पा लो तुम
मैं की शक्ति क्यों भूल रहा,
अपने बल को पहचान तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

कुछ भी कर बच ना सकेगा तू
मृत्यू का ग्रास बनेगा तू,
बंद पिंजरे में क्या रहेगा तू
क्या संकट से ना लड़ेगा तू।
तय मरना कल या आज है तो
कल की मत सोच मर आज तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

अंतिम तक जोर लगाओ तूम 
मन का विश्वास जगाओ तुम
जरा जोश जुनून से आओ तुम
फिर एक छलांग लगाओ तुम
गिर-गिर कर उठ ,उठ-उठ कर गिर 
हर बार तू उठ हर बार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।

हाथों में जो है लकीर बना
देखा जिसने वो फकीर बना
जो वीर  धीर गंभीर बना
जग उसका ही जागीर बना
किस्मत के भरोसे बैठ ना अब
सुन मंजिल की पुकार तू चल
राही रे उठ उस पार तू चल।
राही रे उठ उस पार तू चल।

                                        'शर्मा धर्मेंद्र'